Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj

View full book text
Previous | Next

Page 374
________________ चन्द्रिका दोका से तीस श्लोक ३७ गुणोंसे प्रयोजनविक्रिया सम्बन्धी अणिमा महिमा आदि प्रसिद्ध आठ भेदोंसे और पुष्टिसे उन्ही की पुष्टिका अर्थ यदि लिया जाय तब वो पुष्टिसे सम्यग्दृष्टिकी विशेषता इस प्रकार समझनी चाहिये कि मिध्यादृष्टिकी विक्रियामें उतनी सामर्थ्य नहीं पाई जाती जितनी कि सम्यग्दृष्टिकी विक्रियामें रहा करती हैं। यदि इन आठ गुखों और पुष्टिको भिन्न भिन्न लिया जाय ताठ गुणके विषय में उपयोग की अपेक्षा से अन्तर समझना चाहिये । अर्थात् सम्यग्दृष्टि देव अपने उन गुलोंका दुरुपयोग नहीं किया करता । मिध्यादृष्टि देव कदाचिन् दुरुपयोग भी कर सकता है। तथा पुष्टिके विषय में यह समझना चाहिये कि शरीर के उपायके योग्य वैक्रियिक शरीर के परमाणुस्कन्थोंके महत्वपूर्ण परिणमनमें अन्तर पड़ा करता है। सम्यग्दृष्टिके समान मिध्यादृष्टियोंके शरीर स्कन्धोंका परिणमन सातिशय एवं महान नहीं हुआ करता। इसके शिवाय तुष्टि शब्दके द्वारा भी सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टिमें जो विशेष अन्तर हैं वह भी प्रतीतिमें भाता अथवा था जा सकता है । क्योंकि इन गुणोंके प्राप्त होने पर सम्यग्दष्टिको तो दृष्टि रहा करती है । परन्तु मिध्यादृष्टि असंतुष्ट ही रहा करता है। सम्यग्दृष्टिके संतोष और मिध्यादृष्टिले असंतोष की स्पष्ट परीक्षा उस समय होजाती है जब कि स्वर्गसे उनके व्युत होनेका अवसर आया करता है। मिथ्यादृष्टि देव मरते समय अपनी विभूति, इष्ट सुख साधन और ऐश्वर्यका वियोग होता हुआ देखकर या जानकर जिसतरह संक्लिष्ट होता रोता और विज्ञाप करता है वैसा सम्यग्दृष्टि नहीं किया करता । क्योंकि वह समझ एवं वस्तुस्वरूपका यथार्थतया श्रद्धावान होने के सिवाय अनन्त रागद्वेषपरिणाम से रहित एवं उतना ही परपदार्थोके संयोग वियोग समभाव रहा करता है । अष्टगु शब्दसे विक्रियाके आठभेद न लेकर यदि गति स्थिति प्रभाव सुख धुति आदिको लिया जाय जैसा कि ऊपर कहा गया है तब सम्यग्दृष्टि और मिध्यादृष्टिके इन भाट मदोंमें जो अन्तर या विशेषता पाई जाती है वह आगमके अनुसार स्वयं समझी जा सकती है। उसका यहां विस्तार करनेकी आवश्यकता नहीं है। फिर भी संक्षेपमें उसका थोडासा परिचय देदेना उचित प्रतीत होता है । यांत - सम्यग्दृष्टि जीव भवनत्रिक में उत्पन्न नहीं होता, देवी नहीं होता, श्रभियोग्य fafafe सरीखी निकृष्ट अवस्थाओं को प्राप्त नहीं किया करता, और मह नीचे ही स्वर्गीतक उत्पन्न न होकर अन्तिम विमान सर्वार्थसिद्धि तक भाव धारण किया करता है तदनुसार १- द्रव्य मिध्यादृष्टि सहस्रारसे ऊपर नहीं जाता "परमहंस नामा परमती सहस्रार ऊपर नहीं गती ॥ चौ० ठा० परन्तु रुपबहारतः सम्बन्दृष्टि पूर्णतया आईत आगमके अनुसार तपस्वी किन्तु अन्तरंग में वर्शन मोहके सूक्ष्मतम के कारण चवमेवंव तक भी आया है इससे ऊपरका भव मिध्यादृष्टि नहीं, सम्धष्ट धारण किया करता है

Loading...

Page Navigation
1 ... 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431