Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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रत्नकरण्डश्रावकाचार संगारमें जितने आभ्युदयिक पद हैं वे सब सीमित हैं । राजास लेकर चक्रवतिकके पदोंका, बल सीमित अधिकारक्षेत्र सीमित, श्राशा ऐश्वर्य सीमित कार्य सीमित और फल भी सीमित ही है । मानवेन्द्रोंके सिवाय यदि सुरासुरेन्द्रों के विषय में विचार किया जाय तो उनका भी बल अधिकार कार्य और फल, द्रब्य क्षेत्र काल भावकी अपेक्षा सीमित ही है। यदि सराग व्यक्तियोंको भी छोडकर वीतराग यतीन्द्रोंकी दृष्टिसं देखा जाय तो उनका भी बल शक्ति अधिकार कार्य और फल प्रायः सीमित ही हैं। यधपि गणीन्द्रोंका कार्य और फल कदाचित् निःसीम अथवा अनन्त कहा जा सकता है फिर भी यह तो निश्चित है कि वे उपजीव्य नहीं उपजीवकती हैं, उनकी शक्तियां और योग्यताएं जो कार्य करती हैं उनके विषयमें वे एकान्ततः स्वतन्त्र नहीं हैं। उनकी शक्तियें एवं योग्यताओंका कार्य-जीवन दूसरोंसे-तीर्थकर भगवान्स प्राप्त अर्थपर ही निर्भर है। यद्यपि संसारके सभी आभ्युदयिक पद कथंचित् स्व और पर दोनोंकी दृष्टि से हितरूप भी कहे और माने जाते हैं, तथा है भी। किन्तु यह भी सुनिश्चित है कि वास्तव में इस कारिकामें वर्णित म्युदायिक पद ही एक ऐसा पद है जो कि अपनी सभी योग्यताओंके विपयमें न केवल अतुलता और अनन्तताको ही रखता है प्रत्युत अपने कृस्पक विषयमें सर्वथा स्वतन्त्र अनुपम अपूर्व और द्रव्य क्षेत्र काल भाव चारों ही दृष्टियो अनन्त भी है।
इस अवसरपर यह बात भी पान में रखने योग्य है कि इस पदका यहां वर्णन करनेस कई आवश्यक प्रन भी हल होजाते हैं। संसारमै जिने भी सैद्धान्तिक दार्शनिक अथवा धार्मिक ग्रन्थ पाये जाते हैं उन के मून उपज बक्ताओं को दो भागों से यदि किसीभी एक भागमें रख लिया जाता है तो उनकी प्रामाणिकता-स्वतः प्रामाएपके विषयमें उपस्थित होनेवाले प्रश्नका कोई भी सतोषजनक उच: नहीं मिलता । यदि उनका बक्ता भस्मदादिके समान सराग एवं अल्पज्ञ है तो सष्ट है कि प्रकृत लोगों के वचन के ही सदृश होनसे उसके ये वचन भी स्वत: प्रमाण नहीं मान जा सकत । इसके विरूद्र उनका पेसा वक्ता यदि कोई अशरीर पीवराग सर्वज्ञ ईश्वर है एसा माना जाप तो यह मान्यता मी असंभव होनेसे प्रमाण नहीं मानी जा सकती । क्योंकि वचन मूते जड़ है और ईश्वर अमृते चेतन है। अमूर्तसे मर्व और चेतनसे जडरूप कार्यकी उत्पत्ति नहीं हो सकती । फलतः मूलवस्ताकी सिद्धि युक्तियुक्त मरहने के कारख के सैद्धान्तिक अथवा धार्मिक वर्णन भी स्वतः प्रमाण नहीं माने जा सकते। ऐसी अवस्था में प्रकृत अन्धकी अप्रामाणिकताका परिहार और उसके स्वतः प्रामाण्यकी प्रसिद्धि लिये यह अत्यन्त आवश्यक है कि उमफे मूल-उपज्ञ वक्ताका ऐसा स्वरूप बताया जाय बोकि इन दोनों दोषोंसे रहित होने के सिवाय वास्तवमै वचनकी स्वतःप्रमाणताके लिये उचित
१- व रमा अमन पराग और नरपड अथवा मशरीर सडवीतरागा.