Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj

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Page 397
________________ ३८० रत्नकरण्ड श्रावकाचार है । परन्तु तीर्थकर भगवान्को १०० इन्द्रों के द्वारा सेव्य माना गया हैं । श्रतएव "च" शब्दके द्वारा शेष तिर्यगिन्द्रका भी अनुक्त संग्रह कर लेना चाहिये । प्रश्न -- प्रथम वाक्य ही तिर्यक् शब्दका भी उल्लेख करके पूरे सी इन्द्रोंका ग्रन्थकर्णाने निर्देश क्यों नहीं किया ? उत्तर -- ६६ इन्द्रांको ग्रन्थकर्त्तानि स्तवनका कर्ता बताया है। यह बात निगिन्द्रों के द्वारा संभव नहीं है। ज्ञानकी अल्पता और अक्षरात्मक भाषाका अभाव इनके लिये प्रतिबन्धक है । वे इन असमर्थताओं के कारण अन्य इन्द्रोंके समान स्तुति नहीं कर सकते । किन्तु भक्तिवंश वे भी वन्दना सेवा यादि किया करते हैं । फलतः त्रिलोकीपतिकी संवासे पृथक् न रहने के कारण १०० इन्द्रों की संख्या में तिर्यगिन्द्रोंकी भी परिगणित किया गया है। अतएव आचार्यने पर उनका गोग्गरूप से "च" शब्द के द्वारा संग्रह कर लिया है। ऐसा समझना चाहिये । नूतपादाम्बोजाः --- पार्यो एव अम्भोजे इति पादाम्भोजे । नूतं स्तुले पादाम्भोजे येषां ते नूतपादाम्योत्राः । अर्थ स्पष्ट है कि उनके चरण कमलोंकी उक्त देवेन्द्रो तथा नरेन्द्रों और यतीन्द्रों द्वारा स्तुति की जाती है। यहां पर नूत शब्द उपलक्षणमात्र है । अतएव न केवल स्तुति अर्थ ही ग्रहण करना चाहिये किन्तु सेवा उपासना अर्चा आराधना आदि सभी भक्तिपूर्वक किये जाने वाले भावों में समझना चाहिये। I दृष्टया - दृष्टि शब्दसं करण अर्थ में यहां पर तृतीया विभक्तिका एकवचन किया गया हैं। मतलब यह कि अर्थ-माक्ष-पुरुषार्थका भले प्रकार निश्चय करनेमें जिन ओोंको यह दृष्टिदर्शन- सम्यग्दर्शन असाधारण कारण पड़ता है वे जीव इस महान् तीर्थंकर के व्यभ्युदयिक पदको प्राप्त हुआ करते है। तीर्थकर प्रकृतिकं बन्धको कारणभूत श्रागममें दर्शनविशुद्धि आदिक सोलह भावनाएं बताई गई हैं। इनमें मुख्य दर्शनविशुद्धि ही है। क्योंकि उसके बिना शेष १५ भावनाएं स्वतंत्रता अपने कार्यमें समर्थ नहीं है । श्रीर इज पन्द्रहके बिना भी केवल दर्शनविशुद्धिकं रहने पर तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध हो सकता है। वह इसके लिये स्वतन्त्र ही समर्थ हैं । इसलिये यहां पर दृष्टि शब्द से सामान्यतया सम्यग्दर्शनर नहीं अपितु विशिष्ट दर्शनविशुद्धि भावना अर्थ ग्रहण करना अधिक उचित एवं संगत है। १३ दमद्यानिवाहिद विसद् मधुरचक्खाण । अन्तासीद् गुणारा णनो जिणारां विदभवार्य ॥ तथा-भवणालय चालीसा वितरदेवाण हाति बत्तीसा । कप्पामर चउवासा चंदो सूरो गरी तार ॥ २- यद्यपि तीर्थकर कर्मकं बन्धमें दर्शनविशुद्धिके साथ शेष १५ में से कोई एक भावना मी स्वश्व रहा करता है । ३ - प्रायः सर्वत्र इस शब्द का अर्थ सम्यग्दर्शन मात्र ही किया गया है, न कि दर्शनविशुद्धि । किन्तु इस कारिका तीर्थकर शब्दका वर्णन है। अतएव उनकी करणरूप दर्शन विशुद्धि अर्थ उचित है जो "सुनिश्चितार्थाः " पदके अर्थ से भी मेल खाती है।

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