Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
View full book text
________________
१८३
चन्द्रिका टीका उनतालीस श्लोक हैं किन्तु ये परिणाम सम्यक्त्वसहित जीवके ही हुआ करते हैं अत एव तीर्थरत्वका कारण सम्यग्दर्शन माना गया है । बन्धके समय जो जीवका तीर्थकृत्व--- श्रेयोमार्ग प्रणेतृत्व के लिये ड निश्चय हुआ करता है वही निश्वयका संस्कार अपने लिये योग्य आर्हन्त्य के निमित्त को पाकर तीर्थकर नामकर्मके उदयमें निमित्त बन जाता है जिससे कि जगदुद्वार में समर्थ दिव्यध्वनिका निर्गम हुआ करता है । इस कारण कलाप और कार्यकारणभाव की परम्परामें मोचमार्गोपदेश की रंगभूमि पर मुख्यतया अभिनय करनेवाली सूत्रधार सम्यग्दृष्टिकी सहचारिणी दर्शनविशुद्धि भावना ही है।
ध्यान रहे कि जिसतरह सम्यग्दर्शन बन्धका कारण न होकर भी सरागभावका सहचारी होने के अपराघमात्र से तीर्थंकर प्रकृतिकै बन्धर्मे कारण मानागया हैं जो कि सर्वथा मिथ्या नहीं किन्तु सर्वथा सत्य है उसी प्रकार माहंत्य - अनन्त चतुष्टय भी वस्तुतः तीर्थंकर कर्मक उदयका कारण न होकर साहचयके कारण ही निमित्त माना गया है। “इस प्रकृतिके बन्ध और उदय के समय की दोनों अवस्थाओं में निमिचसंबंधी यह एक अपूर्व आश्चर्यजनक विशेषता पाई जाती हैं कि बन्धके विषयमें जहां सर्वोकृष्ट अभयदानकी भावना तथा असहदयासं पूर्ण सराग भाव निमित्त हैं, तब उदयके लिये अनन्त अभयदानकी क्षमता एवं निर्दयता १ से युक्त वीतराग भाव निर्मित है। इसका भी क्या कारण है ? तो इस सम्बन्ध में सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने पर मालुम होता है कि सम्यग्दृष्टिका लक्ष्य ही आत्मनिर्भर हुआ करता हूँ । मु मिध्यादृष्टि जीव जहां पर सापेक्ष एवं अनात्मनिर्भर लक्ष्यसे ही युक्त रहा करता है वह उससे सर्वथा विरुद्ध तु सम्पदृष्टि जीव परनिरपेक्ष एवं आत्म निर्भर लक्ष्यसे ही युक्त रहा करता है। अतएव अपने पुरुषार्थके बल पर गुणस्थान क्रमसे ज्यों-ज्यों उसका विकास बढ़ता जाता है त्योंस्यों उसकी आत्मनिर्भरता भी बढ़ती जाती है। और अन्तमें आइन्त्य अवस्थाको पाकर वह पूर्णतया श्रात्मनिर्भर हो जाता है। उस अवस्थाको निमित पाकर तीर्थकर प्रकृति उदयमें भाकर अपना काम किया करती हैं ।
तीर्थंकर भगवानके अतिशय चार भागों में विभक्त किये जा सकते हैं। शरीर बाबी भाग्य और आत्मा । कारिकाके पूर्वार्थ द्वारा मुख्यतया भाग्यका अतिशय, वषचक्रधराः कहकर श्रास्माका अतिशय तथा लोकोंका शरराय बताकर वाणी एवं शरीरका अतिशय प्रकट किया गया है ।
तीथकर तीन तरहके हुआ करते हैं। दो कन्याणकवाले, तीन कम्याचकवाल और पांच कन्याणकवाले | जिन चरमशरीरीं अनगारोंको तीर्थकर प्रकृतिका बंध हो जाता है वे दो
I
१- निष्क्रान्तो दयायाः निर्दयः । दयायाः सरग्गरूपत्वम् ।
१--० ५० १० ३५ ।