Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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aद्रिका टीका चालीसवां क
$119
यह बात सूचित हो जाती हैं कि विना पुरुषार्थ के अनन्त सुख और अनन्त ज्ञान ही नहीं किन्तु फर्माटक वह शिवपर्यायभी अभिव्यक्त नहीं हो सकती जो कि विविध श्राकुलताओं के कारणभूत के सर्वथा विनष्ट होने पर ही सर्ववित्र निराकुलताओंसे विशिष्ट हुआ करती है। क्योंकि जबतक साध्य सिद्ध नहीं हो जाता तबतक साधन अवस्था मुख्य रहा करती है कारण यह कि साधनके बिना साध्यका सिद्ध होना कठिन ही नहीं असंभव है । अतएव जबतक शास्मद्ररूप और उसके प्रत्येक गुणकी पूर्णतया शुद्धि नहीं हो जाती वहां तक आत्माको पुरुषार्थ आवश्यक रूपसे करना. ही पडता है । और इसके लिये उसको प्रारम्भ में बाह्य द्रव्यों का भी अवलम्बन लेना ही पड़ता है तथा अपनी शक्तियों का भी उपयोग करना पड़ता है । ज्यों २ श्रात्मा साध्यरूप अपनी अवस्था की तरफ अग्रसर होता जाता है त्यों २ सभी बाह्य साधन अनावश्यक होते जाते हैं और वे अनायास ही छूट जाते हैं।
सर्व प्रथम दर्शनमोडके विनाशका, फिर चरित्र मोहके क्षयका, उसके बाद धात्रिय के घात का प्रयत्न हुआ करता है और उसमें अवस्थानुसार बाह्य पदार्थों का माश्रय लेना पड़ता है यद्वा वे निमित्तरूप बना करते हैं। इतना हो जानेपर भी उस सफल परमात्माको अघाति कर्मों को भी निःशेष करने के लिये उनके पीछे भी पड़ना ही पड़ता है। सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति और क्रिया निवर्तन से व्युपरतिके लिये भी बीर्य गुरुणको श्रम करना ही पड़ता है। तब कहीं शिव स्वरूप की सिद्धि होने पर यह जीव विभवरे हुआ करता है। इस प्रकार तत्पुरुष समासके द्वारा मोक्षमार्ग और साध्यरूप शिवपर्यायी प्रयत्नसाध्यता स्पष्ट हो जाती है। इसके जनन्तर भी वह वीर्य आना काम करके "दीपनिर्वाणकल्पमात्मनिर्वाणम्" के सिद्धान्तानुसार सर्वथा समाप्त नहीं हो जाता, वह भी अन्यगुणों के समान उनके बराबर में ही स्थित रहता है और कृतकृत्य होकर तथा अपन शुद्रस्वरूपमें अनन्तकाल के लिये विश्रान्ति लेते हुए भी जन्य अनेक वायिक रे भावा को प्रश्रय दिशा करता है। इस तरह सम्यग्दर्शन के कारण प्राप्त होने वाले अन्तिम फलसंसार और उसके दुःखोंसे सर्वथा विनिवृत्ति तथा समन्वती भद्र उत्तमसुखस्त्ररूप शिक-र्याय की निध्यसिंमें दोर्य गुण का जो महत्वपूर्ण उपयोग हैं वह व्यक्त होता है।
विमलम् --- विगतो भलो यस्मात् अथवा यत्र तम् विमलम् । जहां पर किसी भी प्रकारका मल-दोष कलंक, अशुद्धि, पवित्रता, अथवा उसके कारणभूत पर पदार्थ का सम्पर्क नहीं रहा
१- तांरंमन्समुच्छिन्नां यानिवातीन ध्याने कंचलनः सम्पूर्णयथास्य । तचारित्रज्ञानदर्शनं सर्वससार दुःखजालपरिष्वंगोच्छे जननं साक्षान्मः चाकारणमुपजायत । स पुनरयोगिकेवली भगवांस्तदा ध्यानानसनियेसर्व मलकलबन्धो निरस्त किट्टधातुपाषाणजात्यकनकवलकारमा परिनेवति ॥ त० ५० ६-४२॥
२ - विगतो भयो यस्य नष्टसंसारः ।
३ -- यदि क्षायिकदानादिभावकृतमभयदानानि सिद्ध ष्वपि तत्प्रसंगः। नैष दोषः । शरीरनाम तीर्थंकर कर्मोदयाद्यपेक्षत्वात् तेषां तदभाव तदप्रसगः । कथं तर्हि तेषां सिद्धेषु वृत्तिः १ परमानन्तयोर्षाव्वादाच सुखरूपवतेषां तत्रवृतिः । केवलज्ञानरूपेणानन्तवोचित्या