Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj

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Page 419
________________ रलकरावकाचार सम्यग्दर्शनन जिसको अपनी शरणमें लिया है और जिसके अनेक गुणोंके भण्डार का अस्त्रागारमें सुदर्शन चक्के समान सम्यग्दर्शनरूप अमोघ अस्त्र प्रकट होकर साथमें मागया है वह तो किसी भी प्रतिपक्षीस संधि न करके अपने ही पुरुषार्थ के बल पर स्वाधीन अनन्त अव्याबाधमुख साम्राज्य पर अपना पूर्ण अधिकार प्राप्त करके ही विश्राम लिया करता है। जिसके कि बाद फिर उसे अनन्त काल तक भी ८४ लाख योनियों में से किसी में भी भाना नहीं पड़ता, माताके गर्भाशयमें अवतार धारण करके उसका उच्छिष्ट ग्रहण नहीं करना पड़ता। --पहियानके अनन्तर उसका स्तनधान नहीं करना पड़ता। शकर आदिको पर्याय प्रासकर मलमचषका काम नहीं करना पड़ता,१ सहज शारीर मानस आगन्तुक पाथाओंसे पीडित नहीं होना पड़ता, अपने स्वाभाविक परमसूक्ष्मरूपको छोड़कर विकृत स्थूलरूप धारण नहीं करना पड़ना, उच्च नीच छोटा पड़ा दरिद्र श्रीमन्त प्रादिके रूप धारण करके बहुरूपिया नहीं बनना पड़ता। वह तो अपने उस शास्तविक सम्यक् सत् चिन् आनन्द स्वरूपमें ही, जो कि स्वयंके ही इन स्वाभाविक गुणोंके सिवाय अन्प भी अनन्त और परस्परमें अभिमरूपमें ही रहनेवाले गुणोंका अखसह पिण्ड है, सदा निमग्न रहा करता है। इस प्रकार सम्यक्त्वक प्रतापले सम्यक बने हुए पुरुषार्थक निमित्तसे सबसे प्रथम प्रपल वम-~-मोह और तदनन्तर प्रमलतर पातित्रपका विधान करके अनन्तचतुष्टयको हस्तगत करने वाला भव्य परमात्मा सांसारिक किसी भी तरह की उपाधिस भी युक्त न रहने की भावनास ही मानों भवातिचतुष्टयको भी निश्चिन्ह मनाने के लिये प्रयत्नशील होता है और उसमें भी सफलआ प्राप्त करके अपने विशुद्ध भावरूप लक्षण अव्याराव सूचमत्व भवगाइन और अगुरुलधुन्व से भी विभूषित होकर मनन्त कालके लिय विश्रान्त होजाया करता है। वही अशरीर परमात्मा पुनर्जन्मसे रहित होनेके कारण अज है, समस्त देवों के द्वारा प्राराध्य अभिवन्द अभिगम्य वादि होनेके कारण दवाधिदेव महादव है, अपने चिरवरूपमें सम्पूर्ण कालिक सृष्टि-द्रव्य गुंख पर्यायोंकी समष्टिक परिच्छिन्न रहन तथा चीरसमुद्रको भी सर्वथा श्वगणित करनेवाले अपने ही सुखसागरमें निमग्न रहनवाला अनन्तशायी विष्णु है । और वही सम्पूर्ण कर्मशत्र ओं पर विजय प्राप्त करके अपनी अविकल गुण लक्ष्मीको सिद्ध करनेवाला प्रसिद्ध सिद्ध जिन भगकान है। इस तरहकी समन्त भद्र शिवपर्याय यद्यपि चारित्रके पिना केवल सम्यग्दर्शनसे ही सिर नहीं हुआ करती जैसा कि ऊपर बताया गया है तथा ग्रन्थकी भादिमें स्वयं अन्यकर्ताने भी खायको ही संपारके उच्छेद भार परमनिःश्रेयसपदकी सिद्धिका साधन बताया है। फिर भी जैसा कि इस अध्यायमें निरूपण किया गया है खत्रयमें मुख्य सम्यग्दर्शन ही है। क्योंकि उसके १-कुछ लोगोंने ईश्वरका शकरावतार भी माना है जिसने कि प्रथाजीकी सष्टिको उसके बायें हरण दैत्य द्वारा रपे गये विष्टाफ कोटका सक्षम करके रक्षा को थी।

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