Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj

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Page 418
________________ पान्द्रका टीका थालीसा श्लोक दर्शनशरणाः पदसै यपि सम्यग्दर्शन ही मुख्यतया ग्रहण करनेमें माता है स्थापि इसमें दर्शन शब्दसे सम्यग्दर्शन और शरण शब्दसे सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र दोनोंका अथवा केवल सम्पक चारित्रका भी प्राण अवश्य कर लेना चाहिये । क्योंकि केवल सम्यग्दर्शन, विना ज्ञान और चारित्र को भी सहायता अथवा कथंचित् केवल चारित्रकी भी सहायताके न सो अपना ही पूर्ण विकास कर सकता है—निस्तरण अवस्थाको प्राप्त हो सकता है और न सम्भूर का ही निशेष पथ कर सकता है। कारण यह कि एक मनादि मिध्यादृष्टि जीवको अपनी परिपूर्ण शुद्ध अवस्था में परिणत हानक पूर्व अपने गुणोंके स्थानों में जो शुदिका क्रमसे विकास करना पड़ता है उसमें मोहका प्रभाव ही केवल कारण नहीं है, योन भी बहुत बड़ा निमित्त है । मोहके अभाव अथवा सम्यग्दर्शनके होनसे भूमि शुद्ध होती है और बीज अंकुरक उत्सादनका योग्यता प्रकट होता है | किन्तु इतने मात्रसे ही तो पच उत्सम होकर फल हाथमें नहीं प्राजाता। उसके लिये अन्य भी अनेक प्रयत्न करने पड़ते हैं। यह प्रयत्नस्थानीय ही यांग अथवा चारित्र है । विवचित गुणस्थानाम चारित्रका क्षेत्र थोड़ा नहीं है। सम्यक्त्वोत्परिक वाद चौथे गुणस्थानिस ऊपर दस गुणस्थानामें चारित्रका ही प्रभुत्व है। सम्पूर्ण कोका निर्जरा होन में भी तपश्चरणक रूपमं चारित्रवा हा प्रवल साझय्य काम किया करता है। हां, यह ठोक है कि इस सब कामको सिद्धि के मूलम सम्यग्दर्शन हो अपना कार्य किया करता है। किन्तु इसके पहले जो उसकी उत्पत्ति के लिए जावका प्रथम हुमा करता है हमी उपेक्षणीय नहीं है। वह पुत्र जो अपने पिता जनककी अवगणना या निन्दय करनेवाला कितना ही योग्य क्यों न हो, प्रशस्त नहीं माना जा सकता । यह मालुम होने पर कि पिना सम्पन्दशेनके संसारके दुःखामे एकान्ततः मुक्ति नहीं हो सकती, जी भजीव कौकी पराधीनता से सर्वथा छुटकारा पानेक लिये अनन्य शरण होकर उसीकी उत्पचि वृद्धि एवं सम्पूर्ण सफलता के लिये अपनी समस्त शक्तिको लगा देता है वह अवश्य ही एक दिन उपयुक्त शिवपर्याय को प्राप्त कर लिया करता है और कुतकाय हुआ माना जाता है, उसीका पुरुषार्थ सफल समझा जाता है । उसको जबतक वह अपनी शुद्ध सुखमय अवस्था प्राप्त नहीं हो जाती तब तक चैन नहीं पड़ती, और उसके पूर्व कर्मों के द्वारा उपस्थित किये गये बड़े बड़े प्राभ्युदयिक पदों के प्रलोभन भी उसको लक्ष्य भ्रष्ट करने में समर्थ नहीं हुमा करते। यह टोक है कि प्रबल पुरुषार्थी भव्यजीवके प्रयत्नसे उत्पन्न हुए पुत्र स्थानीय सम्पनत्वके अतुलित प्रभाव एवं माहात्म्यको मानों दृष्टिमें लेकर ही भयातुर और अपने साम्राज्यके लिये चिंतित होकर कर्मशत्रुओंकी सेना सक पुण्यफलोंको देकर उससे संधि कर लेना चाहती है परन्तु अपनी शक्तिया पर पूर्ण मरोसा रखने वाला यह अनन्तवीर्य मन्य उन टुकड़ों के बदलेमें अपने उस अनुपम प्रैलोक्याधिपतिस्मक स्वाधीन अधिकारको बोबना रंचमात्र मी पसन्द नहीं करता।

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