Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj

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Page 417
________________ गल्करावकाचार सप्त परमस्थानोंके रूप में सम्यादर्शनके ग्राम्युदयिक फलोंका वर्णन हो जाने पर प्रश्न यह खड़ा हो सकता है कि क्या सभी सम्यष्टियोंको ये सभी आभ्युदायिक फन प्राप्त होते ही है ? अथवा ये फल एक जीवकी अपेक्षामे कहे गये हैं अथवा नानाजवों की अपेक्षासे । इसी प्रकार इन अम्पुदयों को प्राप्त किये बिना भो कोई जीव सम्यग्दर्शन के बल पर ही संसारके दुःखों से सर्वथा परिमुक्त हो सकता है या नहीं ? इत्यादि । इन सब प्रश्नोंका संक्षेपमें उचर इस प्रकार है कि सम्यग्दृष्टि जीवमात्रको ये सभी आशुदयिक फल प्राप्त हों ही ऐसा नियम नहीं है। यह फल वर्णन एक जीवकी अपेक्षासे नहीं नाना जीवोंकी अपेक्षासे किया गया है तथा केवल सम्यग्दर्शनके ही बलपर कोई भी जीव निर्माणको प्राा नहीं कर सकता। सम्यग्दर्शनको उत्पत्तिके पूर्व जीव दो प्रकार के हो सकते हैं-एक बद्धायुष्क और दसरे अबद्धायष्क । जिन जीवों को चार आयुकमिसे किसी भी परभव सम्बन्धी श्रायुकर्मका बन्ध हो चुका है वे सब बद्धायुष्क हैं। इस तरहके जीवमिसे जिन्होंने जिस आयुका बन्थ किया है वे उस आयुकर्मक बंधक अनन्तर सम्पग्दर्शनके उत्पन्न हो जाने पर भी उस रद्ध भायुक अनुसार ही गतिका पात किया करते हैं। परन्तु जो अपद्वायुष्क हैं, सम्यग्दर्शन प्रकट होनस पूर्व जिन्होंने किसी भी आयुका बब नहीं किया है ऐसे जीव सम्पग्दर्शनके विद्यमान रहत हुये देवायुके सिवाय अन्य किसी भी प्रारबंध नहीं किया करते। फिर चाहे वे मनुप्य हों अथवा तियंच। यदि कोई मनुष्य तद्भव मोक्षगामी हो तो यह किसी भी वायुका वध न करके उसी भवसे भवरहित इस शिवपर्यायको प्राप्त किया करता है। ऐसा जीव ऐन्द्री श्रादि जातियों तथा सुरेन्द्रता श्रादि परमस्थानोको प्राप्त नहीं किया करता । परन्तु यह बात-तद्भव मोच उसी मनुन्यमें संभव हो सकती है जिसको कि सज्जातित्वादि तीन प्रथम परमस्थान पहलेसे प्राप्त हैं। जिसको कि वे प्राप्त नहीं हैं वह जीव ऐसी देवपर्यापको भी प्राप्त नहीं कर सकता जो कि निर्ग्रन्थलिंगसे ही संभव है, तब वह निर्वाणको तो प्राप्त ही किस तरह कर सकता है । निर्वाय अवस्था मिना चारित्रके केवल सम्यग्दर्शनसे नहीं हुआ करती। तथा चारित्रके विषय में नियम है कि जो अबद्धायुष्क है, अथवा जिसने देवायुका बंध कर लिया है वही उसको धारण कर सकता है। ऐसा जीव जिसने देवायुको छोड़कर अन्य तीन आयुओंमेंसे किसीका भी बंधकर लिया है यह न देशव्रत-संयमासंयमको प्राप्त कर सकता है और न सकलसंयम महाव्रत ही थारखकर सकता है। किन्तु यह निधन है कि निर्वाण अवस्था सम्यक्त्वसहित चारित्रके बिना सिद्ध नहीं हो सकती प्रत्युत वह साधारण चारित्रसे भी नहीं हो सकती । सर्वोत्कृष्ट चारित्र-जिनलिंगके द्वारा जो जो अनन्यवरण हाकर अपने सम्यक्त्वका आराधन करते हैं वे ही इस सर्वाशमें कल्याणरूप अवस्थाका प्राप्त हो सकते हा ग्रन्थकारका यही तात्पर्य है। १-अणुववमहब्बदाईण लहइ देवाउन मा तु॥ २-जैसा कि अन्य प्रारम्भिक परों और यहां दिये गये "दर्शनशरणा पर से जाना जा सकता।

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