Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj

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Page 424
________________ चन्द्रिका टीका इकतालीसा श्लोक समझना चाहिए जिसका कि समवसरण नामसे कहा जाता है । अतएव यह पर उस तीर्थकर पदका बोध कराता है जिनके किसाथ उक्त धर्मशाशन के कत्त्वका सम्बन्ध नियत है । सम्यग्दर्शन के निमित्त प्राप्त होनेवाले इस लोकोत्तर आभ्युदयिक पदकी असाधारण महिमाको प्रकट करनेके लिये ही यह विशेषण पद दिया गया है कि "अधरीरासर्वलोकम्" । अर्थात् अधरः निम्ना, न प्रबरः अनधरः, अनधरम् अधरम् अकरोत् इति अधरीकृतः, अधरीकृतः सर्वो लोको येन स तम् । अर्थात् जिसन सम्पूण लोकको अपने नीचे कर दिया है । जो तीनों लोकोंके ऊपर शासन करने वाला है। सम्वा और शिव शब्द का अर्थ स्पष्ट है। "a" यह अध्यय है, जो कि अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुम्मा करता है । छन्दो रचनामें पादपूर्तिक लिये इसका प्रयोग हुआ करता है । किन्तु यह बात प्रायः साधारण कवियोंकी कृतिमें ही पाई जाती और मानी जाती है। किन्तु जो महान् कवि हैं । कक्यिोंक भी जो आदर्श हैं उनकी रचनामें यह बात नहीं हुआ करती रन भानी हो जाती है। ग्रन्थके कर्मा भगवान् समन्तभद्र स्वाभी साधारण कवि नहीं, महान आकति माने गये हैं। उनकी कृतिमें इस "च" का प्रयोग निरर्थक मोरज पार्विक लिये हो मानना अयुक्त है। अतएव इसका विशिष्ट प्रयोजन है। श्री समन्तभद्र स्वामी महान् वैयाकरण भी है। व्याकरण शास्त्र में "च" के चार मर्थ माने गये है--समुच्चय अन्वाय इतरेतर और समाहार । जैसा कि पहले लिखा जा चुका है। अनेक शब्दोंका जहां द्वन्द्व समास किया जाता है वहां पर इनमें से अन्तिम दो अर्थ हुआ करते हैं। और जहां समास न करके वाक्यमें हो "च', का प्रयोग हाता है तो वहां प्रथम दो अथाभसे कोई भा एक अर्थ माना जाता है। कदाचित्-प्रकरण विशेषके अनुसार दोनों अर्थ भी माने जा सकते हैं। यहां पर भी सपास न रहनेके कारण, केवल वाक्यमे ही "" का प्रयोग हानस इतरतर या समाहार अर्थ न करके उसका समुच्चय अथवा अन्वाचय अर्थ करना ही उचित है। प्ररूपणीय विषयोमस जहां पर कोई गोण और कोई मुख्य बताया जाय यहाँ पर "" का अन्याय और उनमेंसे जहां सभी विषय परस्परमें निरपेक्ष रहते हुए भी एक ही क्रियासे सम्बन्धित हो वहां उसका समुच्चय अर्थ हुआ करता है। प्रकृतमें इस “च" का अन्याय अर्थ मुख्यतया करना उचित है क्योंकि ऐसा करनेसे प्रथम वीन चरणों में प्ररूपित तीनों ही आभ्युदयिक पदोंकी आनुषङ्गिकता प्रकट होजाती है। सम्पष्टिका मुख्य लक्ष्य निर्माणको सिद्ध करना ही है सम्यग्दर्शनका बास्तविक फल भी वही है। यदि बीचमें कोई पद फिर चाहे वह कितना ही महान क्यों न हो प्राप्त होता है तो वह भन्नके लिये कीगई खेतीके फल भूसाके समान नगपर ही है।

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