Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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पत्रिका की इकतालीसा श्लोक तीर्थकर भगवान की उस स्थान सभा-समवसरणकी महिमाका ती वर्णन भी कौन कर सकता हैजिसको कि देखकर इन्द्र तथा चक्रवर्ती भी चकित हो जाया करते हैं। धार्मिक शासनमें वे अद्वितीय हैं; अनुपम है, सर्वोत्कृष्ट हैं। उनके शासनका ही यह महत्वपूर्ण प्रभाव है कि जीव मोहनिद्राको छोड़कर आत्म कल्याणके पथमें चलनकी क्षमता प्राप्त कर लिया करते, मोक्ष मार्गमें विहार किया करते और अनन्त दुःखरूप अवस्थासे छूटकर सर्वथा सुखरूप समन्ततो. भद्र शिवपर्यायको प्राप्त हो जाया करते हैं। इतना ही नहीं, संसारका प्राणीमात्र प्रापके ही दयापूर्ण वीतराग शासनके कारण आजतक जीवित है और सुरक्षित है। आपकी द्वादशगखपत सभामें पल्यके अखंख्यातवें भाग भव्य श्रोता, यद्यपि सभाके क्षेत्रफलसे उनका क्षेत्रफल भसंल्पात गुणा है फिर भी बिना किसी संघप अथवा वाधाके बन्दना पूजामें प्रवृत्त तथा उपस्थित रहा करते हैं। जहां पर आतंक रोग मरण उत्पत्ति बैर कामबाधा भूख प्यासका कोई कष्ट नहीं हुभा करता । जिसके भीतर मिथ्याइष्टि अभव्य, असंज्ञी, संशय विपर्यय अनध्यवसायसे युक्त बीच प्रविष्ट ही नहीं हो सकते । यहीं पर उनकी चतुर्थ गुणस्थानसे लेकर १३ घ गुणस्थानतकके सभी थर्मेन्द्रोंकी उपस्थिनिमें तीन लोल के लिये अभयप्रदान करनेवाली निरक्षर वीतराग युगपत् अनन्त पदार्थों का वर्णन करनेवाली दिव्यध्धनिका दिन भरमें ४ बार छह-छह घटी तक निर्गम हुआ करता है। इस सर्व हितकारी देशना, तथा अष्ट महा प्रातिहार्य, नवनिधियों सम्पापोंक लोकोत्तर वैभवसे पूर्ण, समवसरणका माहात्म्य; तीन लोकके अधिपतियों द्वारा पूज्य लोक्याविपति तीर्थकर भगवानक उस पुरानातिशयके अनुरूप ही है जिसने कि समी पुण्यकर्मोकी पादाक्रान्त कर दिया है। यही कारण है कि उस कर्मके उदयसे युक्त इस तीर्थकर पदको यहां पर अधरीकृतसवलोक कहा गया है।
इस तरह ये तीनों ही आभ्युदयिक पद परस्परमें अपना-अपना असाधारण महत रखते हैं। फिर भी निर्वाणकी अपेक्षा नगण्य तथा हेय ही हैं। यही कारण है कि यहां इनकी गौषता प्रकट की गई है।
यह भी यहां ध्यानमें रहना चाहिये कि सम्यक्त्वके निमित्तसे प्राप्त होने वाले तीन पद उपलक्षणमात्र हैं। इनके सिवाय और भी अनेक पद है जो कि नियमसे सम्परहरिको ही प्राप्त हुमा करते हैं। क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीवको देन और मनुष्य इस तरह दो ही पुण्यरूप गति प्राप्त हुमा करती हैं । अतएव उनसे संबंधित सभी उत्कृष्ट पद तो उसको प्राप्त होते ही है परंत कदाचिन अनुत्कृष्ट पद भी उसे प्राप्त हुआ करते है। इसीलिये इन्द्र पद चक्रपती पद और सीकर पद इन तीनों ही पर्दोको उपलक्षण मानकर इन्द्र पदसे देवगति सम्बन्धी लोकपाल लौकान्तिक तथा अनुदिश अनुचर विमानोपन आदि देवोंका ग्रहब कर लेना चाहिये। चक्रवर्ती पदसे कुलकर, कामदेव, बलभद्र भादि समझ लेने चाहिये । वीर्षकर पदसे दो अन्याय
१-उषमातीतं ताणं को सका वण्णिदु सरल रूप ।...-11०११॥ नि०प० ।।