Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj

View full book text
Previous | Next

Page 413
________________ रत्नकररहश्रावकाचार है। वेदनीय प्रभृति अघाति कमौका निःशेष कथ होने पर इस शिवपर्यायमें ही वह अव्यायाध हुमा करता है। अतएव इस शब्दके द्वारा यहीं पर अनुभवमें आनेवाली पूर्ण निराकुल निर्षिकार स्वाधीन परम शान्तिका परिज्ञान कराया गया है। प्रश्न- प्रवचनसारके प्रथम ज्ञानाविकारकी गाथा नं. ५३ की उत्थानिकामें श्री अमृत चन्द्राचार्गके इस वाक्यसे कि “अथ ज्ञानादभिन्नस्य सोख्यस्य स्वरूपं प्रपंचयन् ज्ञानसांख्ययोः हेयोपादेयत्वं चिन्तयति" मालुम होता है कि ज्ञान और सुख भिन्न नहीं है। अनुभवसे भी ऐसा ही मालुम होता है कि ज्ञानसे सुख और छज्ञानसे आकुलता रूप दुःख हुया करता है। अतएव दोनाको एक ही मानना चाहिये । फलतः यहां पर मुख और विद्यः दानाक ग्रहणकी क्या आवश्यकता है? उत्तर—आनाक दोनों ही गुण स्वतन्त्र । ३ ५ नहीं है। मोहनीय कर्मक अभाव से सुख और ज्ञानावरण कर्म के क्षय से अथवा क्षयोपशमस झान हुआ करता है । दोनोंका कार्य भी भिन्न २ ही है। दोनों को अभिन्न जो कहा जाता है उसका कारण इतना ही है कि वे एक ही द्रव्य के गुण है और कभी भी चे परस्पर में एक दूसरको छोड़कर नहीं रहा करत । तथा परस्परमें एक दूसरेका पूरक हे और ज्ञान सुखका मुख्य एवं अन्तरंग साधक भी है। प्रश्न-उपर ज्ञान में दर्शनका भी अन्तभाव कर लनफे लिये कहा है उसी प्रकार सुख में वीर्यगुण का भी अन्तर्भाव कर लेने पर अनन्तवार्यको बतानक लिये पृथक विभव शब्दको अहस करनेकी क्या आवश्यकता है ? सुखमें ही विभव-वीर्यगुणका अन्तभाव क्या नहीं किया ? उत्तर---अनन्त मुख अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन तीनों ही की उद्भातम बीय गुण प्रधान निमिच है । पुरुषार्थ के रूपमें वीर्य मुणको काममे लिये विना श्रात्माका कोई भी गुण प्रकाशमान नहीं हो सकता । इस अभिप्राय को प्रकट करने के लिये उसका पृथक उन्लेख भावश्यक है। "सुखविद्याविभवाः" शब्दके जो दो समास किये गये हैं उसके अनुसार पाये जाने बाले विशिष्ट अर्थ का भी यहां ग्रहण करलेना चाहिये । व्याकरण के नियमानुसार तत्पुरुष समान उत्तरपदार्थ प्रधान हुआ करता है और इन्द्व समास सर्व पदार्थ प्रधान हुआ करता है। तस्युन समास के पक्ष में विभव-वीर्यगुण इसीलिये प्रधान कहा या माना जा सकता है कि अन्यगुखाँकी तरहथवा उनसे भी कहीं अधिक सुख और विद्याकी समुद्भति में वह बलवत्तर निमिच है। द्वन्द्व समास करनेका कारण यह है कि वर्तमान शिवपर्याय में जब कि पुरुषार्थ का कार्य समाप्त हो चुका है आत्मा के सभी गुण समानरूप में अवस्थित हैं । फलतः तस्वरुष समास के करने से -उत्तरपदार्थप्रधानस्तत्पुरुषः, अन्यपदार्थप्रधानो बहुप्रीहिः, सर्वपदार्थप्रधानो धन्दा, पूर्वाम्यपणार्थ अनोऽवयीभावः । (कास)

Loading...

Page Navigation
1 ... 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431