Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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सनफरसमावकाचार
. परभवम् इनि भायुः । जिसके उदयस इस जीवको अवश्य ही भवान्तर धारण करना पड़े उसको कहते हैं प्रायु । कर्मों के चार भेदोंमें आयकर्म भवविपाकी है। गतिकमक उदयसे जो जीवनी अवस्था-द्रव्यपर्याय हुआ करती है वही भा है और नहीं पायुका विपाकाधार है । किन्तु मयका नोकर्म तस क्षेत्र अथवा शरीर२ है। गागम में शरीरके निमित्तसे इम जीयक ६४ भव. गाहना स्थान पताये गये हैं। जिनमें कि यह संसारी प्राणी निरंतर परिभ्रमण करता हुआ अनेक दुःखका आयतन बना हुआ है। इन अन्तरंग कारसमि मुखिया मायुक्क छूटनेसे सम्बन्धित सभी कर्माकी तथा तज्जनिन परिकृतिको परम्परा भी समाप्त होजाती है और इसीलिये यह जीव चयरहित होकर अनन्त कालके लिये अक्षय शिवरूप होजाया करता है।
अन्यानाथम्---न विद्यते चि-विशेषेण विविधतया वा आ-समन्तात् बाधा:-दुःखकरसानिया | प्रास्ताके प्रत्येक भागमें विशिष्टरूपसे तथा नाना प्रकारस जहाँ रखों के करण भागाधारण कारण नहीं पाये जाते उसको कहते है भन्यावाच ।
शिवपर्याय का यह विशेषण वेदनीयकर्मके उदयसे संसारावस्थामें पाई जाने वाली धुषा मादि व्यापाषाओंके भमायको ही नहीं अपितु उनके एक असाधारण अन्तरंग कारख वेदनीय कमको निःशेषताकै निमित्त से प्रकट हुई निराकुलताको भी व्यक्त करना है।
बेदनीय कर्म मोहोदयके चलपर ही अपना फल देने में समर्थ है, अन्यथा नहीं, यह पान पहले भी कही जा चुकी है जो कि भागमस मी सिद्ध है। अतएव जहाँ तक वेदनीयकी उतिर्णा यह सहचारी निमिच विद्यमान है वहीं तवं बाधाएं भी पाई जाती है, इसके आम नहीं। यही कारण है कि जो मोहरहित हैं उनके ये बाधाएं नही पाई जातीं। वीण पाय गुणस्थानवी शुद्वोपयोगी छमस्थ श्रमण भी जय इन भाधामोंसे रहित है तब माईन्त्य अवस्था में तो कहना ही क्या है जबकि सभी घातिकोका निमूल धय हो चुका है। फिर भी भागममें जो वेदनीय निमसक ग्यारह परीपहोंच्यावाधामोंका अहंदवस्था में उन्लेख किया गया है उसका आशय कार्यरूप पाधाओंके बतानेका नहीं किन्तु उनके कारणभूत वेदनीपक
t-देखो राजधानिक प०२ के सूत्र के वार्तिक ०१-१२सानका भाग्य । २-कमकाएर ग०५८। ३-जीवकायलमा १५ से १.३।
४-पाति व योयं मोहस्स बखेण पावदे जीवं । इति षादीयं मग्झे मोहसादिम्हि परिरंतु ॥१५॥ क. का।
५-खो प्रवचनसार (कुद कुंथ) गाथा नं० १४ और उसकी टीका यथा-सुविहितपरत्वमुचो संजमत रमजुवो विगतरागो। समणो समसुदुक्खो भगिदी सुद्धोवओगोसि ||१४|| सफलमोहनीयविषाक विवेकमा नासौष्ठवस्फुटीकननिर्विकारात्मस्वरूपत्वारिष्ट्रगतरानः । परमकलाबलोकनाननुभवमानसातामातोबनीयनिसितमुखदुःखअनितामरम्मान समसुखदुःला अमनः शुद्धोपयोग इत्यभिधीयता प्र०॥
-काय सिने -११॥