Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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रत्नकरण्डश्रावकाचार कल्याणकवाले हुआ करते हैं। क्योंकि उनके शेष दो-ज्ञान और निर्वाण कल्याणक ही हुआ करते हैं। यदि उन चरम परीरियोंको सागार अवस्था-चतुर्थ या पंचम गुणस्थानों में सीकर प्रकविका वध प्रप्त हुपा करता है तो वे शेयके तीन कल्याणकोंक भोक्ता हुआ करते हैं । यदि अचरम शरीरियोंको उसका बंध होता है तो वे पंच कल्याण वाले दुश्रा करते हैं। ऐसा मालुम होता है कि प्रकन कारिकामें सम्यग्दर्शनके फलस्वरूप पांचकल्याणक वाले ही तीर्थकरोंको लक्ष्यमें रखकर कहा गया है। किन्तु यह कथन दो या तीन कल्याणकवालोंमें भी घटित हो सकता है।
यद्यपि तीर्थकर प्रकृतिका उदय तेरहवें गुणस्थानमें ही हुआ करता है जैसा कि ऊपर बताया गया है फिरभी अनेक पुण्यकर्मों और अतिशयविशेषोंसे युक्त यह कर्म उदयसे पूर्व भी योग्य कालके भीतर अनेक अद्भुत महत्वाऑको प्रकट किया करता है । यह उनके भाग्य सम्बन्धी अतिशयों में ही परिगणित किया जा सकता है कि गर्भ में अवतीर्ण होनसे छहमाहपूर्व यदि वे स्वगमें होते हैं वो उनकी मन्दारमाला आदि म्लान नहीं हुआ करती और यदि नरक में रहते हैं तो देवोंके द्वारा उनके उपसर्गोका निवारण होजाया करता है । तथा रववृष्टि, मातापिताकी इन्द्रादिके द्वारा पूजा, ५६ कुमारिकाओके द्वारा माताकी विशिष्ट सेवा और गर्भ शोधन आदि कार्य भी इसी तरहके हैं। जन्मके समय चतुर्णिकाय देवोंके यहां अनाहत ध्वनि आदि होना तथा मन्दराभिषेक श्रादि क्रियाओंका होना, प्रतिदिन देव इन्द्र श्रादिके द्वारा उनकी सेवा, तथा दीक्षा कल्याणकके समय अभिपेक, शिविकावहन आदि कार्य भी इसी कोटिमें सम्मिलित किये जा सकते हैं । ज्ञानकल्याखके होने पर उनका समवसरणमें चतुर्णिकाय के देवों देवियों मनुष्यों मानुलियों और तिर्थचोंके द्वारा ही नहीं, पतियों यतिपतियों-गणथरों एवं केवलियोंसे भी वेष्टित रहना भी त्रैलोक्याधिपतित्वके लिये निमित्त उस लोकोतर पुण्यकर्म वीर्थकर नामकर्मके उदयरूप भाग्यका ही अतिशय कहा जा सकता है। इस तरह पूर्वार्धक द्वारा चार कल्याणकोंमें पाया जानेवाला भाग्यमा अतिशय क्रमसे मुख्यतया भमरपतियों असुरपतियों नरपतियों एवं यतिपतियोंका निर्देश करके स्पष्ट कर दिया गया है।
तीर्थकर भगवान्का धर्मचक्र उनके विहारके समय प्रागे भागे चलता है यह तो उनका अतिशय सुप्रसिद्ध ही है। किन्तु उनकी पारमा स्वर्य धर्मचक्र-धर्मों के समूहरूप ही है । क्योंकि धर्मके जितने भी प्रकार बताये गये हैं वे उन सभीसे पूर्ण है। उनकी आत्माका स्वभावर प्रकट हो चुका है, रसत्रयरूप धर्म उनमें पूर्णतया प्रकाशमान है, उत्तमममा श्रादि थर्मोसे युक्त हैं, दयाकी सीमा पार करके पीनराग बन चुके हैं। भगवान् गुखमद्रस्वामीके द्वारा
१-तित्थयरसचकम्मे उपसमाणिवारयां कृति सुर! । माससेसणिरए मम्मे अमलाणमालाओ । २-म्मा वसुलझायो, इत्यादि।