Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj

View full book text
Previous | Next

Page 402
________________ चन्द्रिका टीका नवालीसवां श्लोक २५५ for as surat प्रकारोंसे १ भी न्यस्त --- निक्षिप्त हैं। कुन्दकुन्द भगवान् के द्वारा व्याख्यात स्वयम्भू पदसम्वन्धी स्वाश्रित पट्कारकधर्मसेर विभूषित हैं । सिद्धान्त शास्त्रोक्त नवधायिक‍ लब्धियोंको मी प्राप्त हैं, मोक्षमार्गकी भूमिकाको पारकर शुद्ध समयसाररूप अन्तिम अखण्ड धर्म के तट पर विराजमान हैं। यह उनकी द्रव्यगुणपर्याय तम्बन्धी अन्तरंग विशुद्धि श्रात्माश्रित अतिशय है। यही कारण है कि उनकी धर्मात्मा धर्ममूर्ति धर्मध्वज धर्माराम आदि शब्दोंके द्वारा स्तुति की गई है। उनके सहजात शारीरिक असाधारण गुण ४ शारीरिक महिमाको प्रकट करते हैं। उनकी दिव्यष्टिका माहात्म्य भी अनुपम हैं। जिस शरीरके देखनेमात्र से चारणवियों तक का ज्ञान निवृत्त हो जाता है उसकी असदृश कन्याखरूपताका वर्णन कौन कर सकता है। वाथी सम्बन्धी लोकोत्तर अतिशय तो प्रसिद्ध है ही । जो अनचरी होकर मी सर्व भाषात्मिका है, सबके लिये हितरूप हैं, अन्तरंग में काक्षा यादि दोषोंसे रहित है और बाहर में श्वासादिके कारण जिसका क्रम अवरुद्ध नहीं हुआ करता, जो अन्य अनेक भाषासम्बन्धी दोषोंसे भी मलिन नहीं है, और समस्त शान्तपरिणामी संज्ञी पंचेन्द्रिय जिसका श्रवण कर सकते हैं । उस पूर्व तत्र एवं तीर्थका प्ररूपण करनवाली सर्वज्ञकी वाणीके माहात्म्य का कौन वन कर सकता है जिसके कि कारण ही आज योमार्ग प्रवर्तमान है, जीवमात्र सुरक्षित हैं, और १ -- धर्मः सर्व सुखाको हितकरो धर्मे चुधाश्चिन्वते धर्मेणैव समाप्यते शिवसु धर्माय तस्मै नमः । धमोन्नास्त्यपरः सुहृद् भवभृतां धर्मस्य मूलं दया, धर्मे चितमहं दूध प्रतिदिन ६ धर्म मां पालय । श्रात्मानुशासन । २-- देखो प्रवचनसार १-१६ की प्रदीपिका (अमृतचन्द्र) तथा तात्पर्यऋशि (जयसेनाचार्य ) । ३- २० सू० अ० २ सूत्र नं० ४ "ज्ञानदर्शनदानलाभ भोगोपभोगवीर्याणि च । च शब्देन सम्यस्व चारि । तथा केवलगाणदिवाय रकिरणकलाबप्पणासियाणायो । णत्रकंचललद्ध गामसुजणियपरमपदलो ||६३ || जी० [फा० | ४ - जन्मसम्बन्धी दश अतिशय - शरीरकी १ अत्यन्त सुन्दरता, २ अतिशयितसुगन्ध, ३ निःस्वेदत्व, ४ निर्नीहारता, ५ प्रियहितवचन, ६ अतुल्यबल, ७ श्वेतवर्ण दुग्धरक्त, ८ एक हजार आठ लक्षण, ३. समचतुरस्र संस्थान, १० ववृषभनाराच संहनन । ५- नीलांजनाकी मृत्युके होने पर रसभंग न होनेके लिये किसीको भी मालुम न हो इतनी शीघ्रता से विक्रियासे दूसरी नृत्यकारिणां इन्द्र द्वारा सभामें उपस्थित होने पर किसी को भेद न दीखने पर भी धूपमेश्वरको वह दोखगया || ६- वीर भगवानका शरीर दीख जाने मासे चारणमुनिराज की शंका निवृत हो जानेके कारण ही उन्होंने भगवाम्का नाम सम्मति रक्खा था । ७ यत्सर्वात्महितं न वर्यासहितं न स्पन्दितौष्ठद्वयम् नो वाद्वाकलितं न दोषमलिनं न श्वासकর कर्म । शान्तामर्वधिषैः समं पशुगणैराकर्मि कर्मिभिः, तन्नः सर्षविरः प्रणष्टविपदः पायादपूर्वं वचः ।।

Loading...

Page Navigation
1 ... 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431