Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj

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Page 405
________________ १८५ बत्न करण्डाभाषकांचार परमाईन्त्य स्थान और परमा जाति जिसका कि ऊपरकी कारिकामें वर्णन किया गया है ऐसे पद हैं जो कि उसी भव मे निर्वाणके साथ हैं। शेष स्थान और जातियों के लिये उसीभात्रसे ilaria होनेका नियम नहीं हैं फिर भी साधना करके नसे मालुम हो सकता है। कर्मसम्बन्धित इन साधनभूत पदोंके निमित्तसे सम्यग्दर्शन का जो अन्दिम कर्मरहित संसारातीत परम निःश्रेयसरूप फल प्राप्त होता है अब यहां उसका वर्णन भी उचित और क्रमप्राप्त है। इसके साथ ही यह नियम है कि सम्यग्दर्शनका यह परमनिर्वाखरूप फल परमार्हन्त्य पूर्वक ही हुआ करता है तथा इस जीवन्मुक्त श्राईन्त्य अवस्था प्राप्त करनेवालेको उसी से परनिर्वाण भी प्राप्त होता ही है । इस प्रसङ्गपर यह बात भी ध्यान में रखने योग्य है कि दोनों ही मान्यताएं मिथ्या हैं कि परमनिग्रन्थ अवस्था दिगम्बर जिन मुद्रा धारण किये विना तथा तपःपूर्वक अर्धनारीश्वर बने बिना सग्रन्थ अवस्था से भी निर्वाण पद प्राप्त हो सकता हैं । अथवा परमनिर्वाणको प्राप्त न करके अनन्तकालतक जीवन्मुक्त अवस्थामें ही जीव बना रहता है । इस दृष्टि से भी परमाईन्त्यके अनन्तर अवश्य प्राप्त होनेवाली सप्तम परमस्थानरूप निःश्रेयस अवस्थाका वर्णन करनेवाली यह कारिका अवश्य ही प्रयोजनवती हैं। इसके सिवाय संसारातीत अवस्थाके विषयमें जो अनेक प्रकार की विपरीत मान्यताएं हैं, उन सबका निराकरण करके वास्तविक स्वरूपका बताना भी उचित और भावश्यक है। क्योंकि धर्म वर्णनकी प्रतिज्ञाके समय उसका जो कर्म निवईणरूप उद्यम सुख फल बताया गया है उसी धर्म मुरूप एवं प्रथम स्थानभूत सम्यग्दर्शनके वर्खेन करते हुये उसके फल निर्देश के अवसर पर अन्तमें उसी कर्म निवईणरूप उत्तम सुखका स्वरूप बताकर विपरीत मान्यताओंके चिपयमें जो अतत्त्वश्रद्धान होता है अथवा हो सकता है उसका परिहार करके उसके तस्वभूत स्वरूपके विषय में सम्यक् श्रद्धान कराना आवश्यक भी है। क्योंकि सम्यग्दर्शनक विषयभूत सात में मोचस्व प्रधान है अतएव उसका ही वर्णन करने वाली यह कारिका उस भाबश्यक प्रयोजनको पूर्ण कर देती हैं। उपर्युक्त आर्हन्त्य पदके पूर्ण निर्दोष रहने पर भी उससे भी सधा विशुद्ध इस परम निर्वाण पदमें कितनी और किंभूत किमाकार विशेषता हूँ यह बात भी इस कारिकाके कार्य पर ध्यान देनेसे मालुम हो सकती हैं। इस तरह विचार करने पर इस कारिका के अनेक प्रयोजन दृष्टिमें आ सकते हैं। शब्दका सामान्य विशेष श्रथं शिवम् — भजन्ति क्रियाका अनुक्त कर्मपद रहनेके कारण शिव पदसे द्वितीयाका एक वचन हुआ है। शिव कल्याण श्रेयस मादि शब्द पर्यायवाचक हैं। यहां इसका अभिप्राय वर्गविष पुद्गल के सभी सम्बन्पोंसे रहित आत्माकी शास्वतिक सर्गविशुद्ध अवस्थासे है । इस अवस्थामें संसार की सभी पर्यायोंसे और खासकर माईन्स्य अवस्थासे भी क्या-क्या अधिक

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