Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj

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Page 406
________________ २४ ---Mar -PAAAnnapur पन्द्रिका टीका चालीमयां श्लोक प्रयोजनीभूत उपादेय महसाएं पाई जाती हैं सो सब इस पदके विशेषणोंके द्वारा स्पष्ट कर दिया गया है । सम्यग्दृष्टिको यही अपनी अन्तिम शुद्ध अवस्था प्राप्य है इस बातको कर्म पद सूचित करता है। उसका एक वचन इस वातको प्रकट करता है कि संसार परिभ्रमणके समय जीवमें पुदगलोंके सम्बन्धमे जो विभिन्न प्रकारसे विविधता पाई जाती है वह यह पर सर्वथा एवं मर्बदाके लिये निर्मूल हो जाया करती है। मतलब यह कि यह अवस्था परनिमित्तक भावों से सर्णया विमुक्त रहने के कारण ममस्त विविधताभोंसे शून्य अतएव एकरूप है । प्रजरम्-यह तथा आगेके "अरुजम्" आदि सभी पद "शिवम्" के विशेषण हैं । अतएव समीमें द्वितीयाका ५ वचन पाया जाता है। जरा शब्द ज थातुसे बनता है जिसका कि अर्थ पयोहानि होता है। शरीर में शिथिलताका आ जाना इन्द्रियोंकी शक्ति का कम होजाना बाल पक जाना, दांत गिर जाना, औदर्य अग्निका मन्द पर आना, शरीरमें बलि-झुर्रियों का आ जाना, और दृढ़तापूर्नक काम करनेकी स्फूर्ति-सोत्साह पृचिका न रहना, ये सब जरा हद्धावस्थाके सूचक हैं। इनके द्वारा वयोहानिका परिज्ञान हो जाता है। मालुम हो जाता है कि अन वय-श्रायु हानि-धीयताकी तरफ उन्मुख है। कितने ही लोग युवावस्थामें भी इन चिन्होंसे युक्त देखे जाते हैं और बहुतसे लोग आयुकी अपेक्षासे घृद्ध होने पर मी इन चिन्होंसे अधिकतर अनभिभूत पाये जाते हैं। इसका कारण आयुकर्मके नो कर्मरूप शरीरमेंक्रमसे शिथिलता भाजाना भोर घडताका बना रहना है। अतएव जिनके शरीर और अंगोपांगोंके बन्धन-संपातमें अन्तरंग बहिरंग कारखोंके निमिचसे जब भी शिथिलता आ जाती है तभी ये चिन्ह प्रकट हो जाया करते हैं। जो इनसे सर्वथा रहित हैं वे ही अजर हैं। जहाँ तक जीव, शरीर और उसके कारणमूत कोसे तथा नो कर्मसे सर्वथा मुक्त नहीं हुआ है वहांतक उसको वखतः एवं सर्वथा अजर नहीं माना या कहा जा सकता है। अतएव इस विशेषणके द्वारा बताया गया है कि यह संसारातीत शिवरूप अवस्था ही वास्तव में अजर है। और उसके निमित्तसे हॉनवासी आकुलताओंसे भी पूर्णतया परिमुक्त है। क्योंकि यही एक पद हैं जो कि जराके निमित्तपूत सभी द्रव्यकोंमुख्यतया नामकर्मकी सम्बन्धित सभी प्रवृत्तिया तथा उनके उदयसे होनवाले अशुद्ध भावोंभावकों एवं तद्योग्य नोकमसि भी सनथा रहित है। __अरुजम् न विद्यते रुक-रुजा = व्याथिर्यस्य यत्र वा, अथवा न रूजति स अरुजस्तम् । का रोगों = शारीरिक व्याधियोसे रहित है उसको कहते हैं अरुज । शरीरमें व्याथियोंके न होने अथवा हानेका क्रमसे मुख्य कारण नामकर्मका भेद स्थिर अथवा अस्थिर नामकर्मका १- शुद्धानन्तशक्तिमानविपरिणमनस्वभावेन प्राप्यत्वात् फर्मरबं फलयन् । प्र० सा० मा० १-१६ बलप्रदीपिका । तमा-नित्यानन्दैकस्वभावेन स्वयम् प्राप्नात्वात् धर्मकारकम् भवति ।। ता० १० ॥

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