Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj

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Page 396
________________ चन्द्रिका टोका उनतालीसत्रां श्लोक हां, यह बात सत्य है कि सम्यक्त्व सहित जीव इन तीन निकायों में उत्पन्न नहीं हुआ करता। वहां उत्पन्न होनके बाद सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सकता है, जब कि सम्यग्दृष्टि जीन नियमसे वैमानिक देवो में ही उत्पन हुआ करता है । इस तरह उत्पत्तिके अन्तरंग कारणरूप परिणाम भेदकी अपेक्षा दोनों में विरोध अवश्य है। किन्तु इसके सिवाय उनमें परस्पर विरोधी आक्रमण युद्ध आदिका कोई भी कारण नहीं है। अस्तु । इनमें जो भवनवासी हैं वे अधोलोकमें और जो म्यन्तर तथा ज्योतिष्य देकर शोक में निवास किया का है। नर शब्दका अर्थ यद्याप विष्णु परमान्मा आदि भी हुआ करता है किन्तु यहां पर सुप्रसिद्ध अर्थ मनुष्य सामान्य ही अभीष्ट है । पनि शब्द का अर्थ "पाविरपति इति पति" इस निरुक्तिके अनुसार स्वामी या रक्षक करना चाहिये। अमराश्च असुराश्च नराश्च इनि छामरासुरनराः तेषां पतयः, तैः । इस विग्रहके अनुसार इस कई पदके द्वारा प्रकृत कारिकामें निर्विष्ट तीर्थकर भगवान्को तीनों ही लोकोंके द्वारा स्तुत्य एवं सेव्य सूचित किया गया है। क्योंकि यह शब्द कृदन्त क्रियापद "त"के कई कारकके स्थान पर प्रयुक्त हुश्रा है । कर्ममें प्रत्त्य होनेके कारण कके अनुक्त होनेसे इसमें तृतीया विभक्ति और उनके बहुसंख्यायुक्त होनेसे उसमें बहुवचनका प्रयोग किया गया है। इस पदके द्वारा जहां भगवानका फोलोक्याधिपतित्व व्यक्त होता है वहीं गर्मादिक चार कल्याणकोंमें पाई जानबाली त्रिलोकीपतियों द्वारा की जानेवाली उनके विशिष्ट सेवा के नियोगकी भी अभिव्यक्ति हो जाती है । ___ यमधरपतिभि:-ऊपरके ही अनुसार यह भी "त" क्रियाका कई पद है। यम थात का अर्थ उपरम---उपरति या निचि होता है। अतएव विषयाशा आरम्म परिग्रह तथा प्रज्ञान मोहयोभयुक्त मनोवृचिसे टपरत होना ही यम अर्थात् संयम१ कहा जावा है इसके जो धारण करने वाले हैं उनको कहते हैं यमधर और जो इनके स्वामी हैं, रक्षक है उन गलधरादिकोंको कहते हैं "यमपरपति"। यह पद सम्यग्दर्शनके फलस्वरूप प्राप्त हुए तीर्थका पदके विषयों न केवल सरायव्यक्तियों के सिवाय वीतराग व्यक्ति के द्वारा भी संपता एवम् स्तपनीयता को ही बताता है । किन्तु साथ ही उनके चतुर्थ कल्याणकी असाधारण महिमाको मी प्रकट करता है। __ "च" शब्द समुच्चय अर्थ में अथवा अनुक्त समुच्चयके अर्थमें समझना चाहिये । क्योंकि प्रथम प्रयुक्त कद पदकं द्वारा भगवान् की जो सेव्यता बताई गई है उसके अनुसार स्तवन करने वाले इन्द्रोंकी संख्याका प्रमाण २६ ही होता है। एक तिर्यगिन्द्रका उल्लेख शेष रह जाता १-बदसमिदिकसाया दंडारण तहिंदियाण पंचएह । धारण-पालणणिगरपागजनो संजमो भगिटी v६५ जी• का।

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