Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj

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Page 394
________________ चन्द्रिका टीका उनतालीमवा श्लोक एवं प्रावश्यक योग्यता से भी युक्त हो । यही कारण है कि प्राचार्यने प्रकृत कारिकाके द्वारा उस तरह के वक्ताका तथा प्रकृत ग्रन्थके भी अर्थतः उपज्ञ वक्ताका सहेतुक स्वरूप बता दिया। उपदेशकी स्वतः प्रमाणतालिये उसके वक्ताका जीरन्गुक्त-सर्वज्ञ वीतराग होकर भी सशरीर होना, न केवल उचित समाधान. ही है, साथ ही निप्पक्ष व्यक्तियों के लिये संतोषजनक एवं श्रद्धय भी है। यह बात हेषिद्ध है, यह तो प्रकर कारिकासे स्पष्ट हो ही जाता है साथ ही उस पद की आनधनन्तता भी म्फुट होती है। क्योंकि यहां पर विवक्षित धर्म के उपदेश और उस धर्म के वक्ताकी परम्परा वीजवृत्तके समान अनादि होकर, फल परम्पराकी अपेक्षा अनन्त भी है यह बात यहांके कथनसे व्यक्त हो जाती है। __ इस कारिकामें जो सम्यग्दर्शनका फल बताया गया है उससे सम्यग्दृष्टियोंको पास होनेवाली१ चार जातियों में से तीर्थकरोंको प्राप्त होनेवाली परमा जातिका और साथही परमाईन्त्य नामके छटे परमस्थानका भी बांध होता है, यह बात उपरके कथनसे विदित हो सकती है किन्तु यहां पर प्रोजन सामान्य आहन्त्यसे नहीं अपितु तीर्थकरत्यविशिष्ट आईन्त्यसे है ऐसा समझना चाहिये । प्रकृत ग्रन्थमं जिस धर्मका व्याख्यान किया जा रहा है उसके भी अर्थतः भूलवक्ता वे तीर्थकर भगवान ही है जिनका कि पद यहां पर सम्यग्दर्शनके फल स्वरूपमें बताया गया है। अपनेसे पूर्ववर्ची तीर्थकर भगवानके द्वारा उपदिष्ट थर्म तीर्थके निमित्त से नवीन तीर्थप्रवर्तकका प्रादुर्भाव होता है । और यही क्रम नियमितरूपसे चालू रहनके कारण धर्म और उसके बक्ताका क्रम भनाबनन्त सिद्ध होजाता है। ग्रन्यकर्त्ताने ग्रन्थकी आदिमें जिनको नमस्कार किया है तथा वर्शनीय विषयको प्रतिज्ञाके समय देशयामि क्रियापदके द्वारा जिस प्रयोज्यकर्ता-वरी विषयक अर्थतः उपज्ञ वक्ताका निर्देश किया है उसका ही यहां पर उपदिष्ट धर्म तीर्थके प्रवर्मकरूपमें तथा उस रत्नत्रय धर्ममे भी मुख्यभूत सम्यग्दर्शनके उपान्त्य फल रूपमें बताकर इस कारिकाके द्वारा अनेक प्रयोजन सिद्ध किये हैं। धर्म-सम्यग्दर्शनका अन्तिम फल संसार की निवृत्ति है। किन्तु इसके सिद्ध होनेसे पूर्ण जो प्राभ्युदायिक पद प्राप्त होते हैं उनमें यह अन्तिम और सर्वोकृष्ट पद ई; इसी पदसे पुनः आगेकेलिये उस धर्मतीर्थकी प्रकृषि हुमा करती है, यह पद सर्वथा निर्दोष रहनेक कारण पूतिया प्रमाण है । उसीका उपदेश भी सर्वात्मना प्रमाण अनुष्य दुःखविघातक और उसम सुखका जनक माना जा सकता है । इसके सिवाय इस पदसे प्रवृत्त होने वाला शासन सभी के लिये किस तरह हितरूप है, और यह पद प्राप्त होने में सम्यग्दर्शन ही किसरूपसे मुख्य १-आतिरेंद्रीभरिया चक्रिण विजयाश्रिता । परमा जातिराईन्त्ये स्वात्मोत्था सिसिमीयुषाम् ॥१६८।। माप,३॥

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