Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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चन्द्रिका टोका उनतालीसवां श्लोक
यही बात प्रकृतमें भी समझनी चाहिए। अन्य सम्यग्दृष्टियोंको जो सम्यक्तके प्रसादसे फल प्राप्त होते हैं अथवा ऊपर कहे अनुसार श्राभ्युदयिक पदोंकी प्राप्ति होती हैं उनका पुरुष प्रयोजन स्वोपकार तक ही सीमित है । परोपकाररूप उनका फल यदि है भी तो वह गौण ही नहीं, अनियत भी है। परन्तु यही एक सम्यग्दर्शनका ऐसा श्राभ्युदयिक पदरूप छल है जिसके कि ऊपर सामान्यतया कुछ मनुष्यों का सीमित हित साधन कर देना मात्र नहीं अपितु सीन लोकके सभी प्राणियोंका कन्यामा करना और नियम रूपसे करना तथा अनन्त अयात्राथ कल्याणको भी संरक्षण प्रदान करना नियमित रूपसे निर्भर है। इस उत्तरदायित्वक कारण प्रकृत अभ्युदयिक फलका मूल्य सर्वाधिक होजाता है। जिस प्रकार अनेक पुत्रोंके रहने पर भी जा कुलको विश्रुत बना देता है वही गणनीय हुआ करता है । अथवा जो राज्य और प्रजा दोनोंके हितको सिद्ध करके सबका अनुरंजन करनेकी सामर्थ्य रखता है वही राज्य का अभिकारी हुआ करता है । अनेकानेक शिष्योंके रहते हुए भी जो संघका समुचितरूपसे संचालन करने की योग्यता रखता है उसीको श्राचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया जाता है । उसी प्रकार प्रकृतमें समझना चाहिये। जिसका सम्यग्दर्शन कुछ विशिष्ट योग्यताओंसे युक्त होता है वही व्यक्ति इस तरहके आभ्युदयिक फलको प्राप्त किया करता है जिसके कि कारण विचित कन्या रूप धर्म की संतति विच्छिन्न नहीं हो पाती क्योंकि सम्यग्दर्शनका यह फल अन्य फलों के समान नहीं अपितु नीर्थकर पद स्वरूप है जिसके कि निमित्तसे निश्चित ही तीर्थ की प्रवृत्तिसम्यग्दर्शनादि बोधरूप धर्मकी पुनः संदति प्रचलित हुआ करती है। इस प्रकार मोक्षमार्गक कुलाबलम्बी पुत्र के समय इस श्रभ्युदय का लाभ भी सम्यग्दर्शनके प्रतापसे ही हुआ करता है, यह बताना ही इस कारिकाका प्रयोजन है।
सम्यग्दर्शनका वास्तविक अंतिम फल निर्वाध – संसार के दुःखोंसे छुटाकर उत्तम सुख --- पर मनिःश्रेयसपदका लाभ ही है किन्तु जब तक वह प्राप्त नहीं होता तब तक मध्य प्राप्त होनेवाले संसार के सम्मान्य सुख स्वरूप पहोंने यह अंतिम एवं सर्वोत्कृष्ट पद है जैसा कि उसके आगमोक्त प्रभुत्वके? द्वारा जाना जा सकता है। फिर भी भाश्चय है कि सम्यग् जीव इस पदको भी अपना साध्य — अन्तिम लक्ष्य पद अर्थात् शुद्ध स्वगद नहीं मानता है । restraint विषय तो वहीं पद है जिसका कि इसके बाद वर्णन किया जायगा । और जिसक कि अनन्तर और कोई पद नहीं है ।
समान्य कुटुम्बं विभर्ति ॥ तथा परमेकः कुलालम्बी या विषये
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एक
पिता ॥ इत्यादि ।
२- तित्भयराण पहुतं हो बलदेवकेमवा च । दुरख च मत्रिशो 'तरिय वै परमाग परसाई तेजी दिली माणं इझूटी सोक्ख तत्र ईनग्यांसह जस्स सो अरि ॥ ३- नित्ययरं सपयत्थं अधिगतमुद्धिस्स सुफाभिस्त । दूस्वरदा राजभर पर foll
पंचारिका ।