Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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न्द्रित टीका उनतालीखां श्लोक
२७३ आर्यत्वहीन एवं जवादी न बनने दें, स्व एवं पर शरणागत आदि सबकी अपायसे रक्षा करें, योगक्षेमके ? द्वारा प्रजाका पालन करें, और प्रजा में मात्स्यर न्याय प्रवृत्त न हो इसके लिये fare अनुग्रह करने में समर्थ योग्य न्याय और दण्डका ठीक ठीक उपयोग करें । यही क्षत्रियोंका कर्तव्य हैं और धर्म है। तथा यही उनका प्रजाके चतका त्राण है। अपने इस कर्तव्यमें यदि वे राजा लोग असावधानी रखते हैं तो चक्रव बैंक द्वारा वे उचित दण्ड एवं निग्रहके पात्र हुआ करते हैं। चक्रवर्ती इसी तरहकी आज्ञा पालन करने वाले ३२ हजार आर्यदेशोंके पित मुकुटबद्ध राजाओंकी संख्या भी ३२ हजार है ।
तीर्थकर भगवान् श्रधे अर्थात् ३२ चमर जिसपर ढोले जाते हैं ऐसे इस चक्रवर्तीका ऐश्वर्य अत्यन्त महान् है । जी कि उसके स्पष्ट सम्यग्दर्शन सहचारी तपाविशेयोंके निनिच से संचित सातिशय एकमेकिं उत्यने इस लब्ध अभ्युदय की असाधारण महिमाको प्रकट करता है। साथ ही उसकी प्रभुवाशक्ति मी अपूर्व हो है। यद्यपि उसका चक्र स्वयं ही प्र मान होता है फिर भी उसका प्रेरक तक कभी वह प्रवाशक्ति दी है जिसको कि चक्रवर्तीन्द्रका निरुक्त्यर्थ बनाते हुए आच वने किया पदके द्वारा व्यक्त कर दिया है। विचार करने पर मालू होता है कि आचार्यने य पर इस बात को अभिव्यक्त किया है कि सम्यग्दर्शन के प्रतापस यह जीव इस तरहक परम साम्राज्य पदक प्राप्त किया करता है जिसके कि फलस्वरूप न काल वह थ हा असाचार वन अथ काम का अविशेवेन सेवन करके अपनेको मोचमार्गमें अग्रसर बना लवः है, मानक निकट पहुंचा देता है । त प्रजा में भी न्याय के रूपमें वीतराग धर्मका प्रवर्तन संरक्षण एवं संवधन करक न केवल ऐहिक रक्षा दी किया करता है किन्तु उसे उत्तम मुखके-परमस्थान मुक्ति प्राप्त कर सकने में भी सहायक हुआ करता है ।
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सम्यग्दर्शन के फलस्वरूप ही परम साम्राज्य की तरह किन्तु उससे भी उत्कृष्ट भाafe पद पर यह भी प्राप्त हुआ करता है, यह बात आचार्य बताते हैं । मरासुरनरपतिभिर्यमधरपतिमिश्च नूतपादाम्भोजाः ।
दृष्टया सुनिश्चितार्थी वृषवकधरा भवन्ति लोकशरण्याः ॥३६॥ अर्थ-दृष्टि-दर्शन विशुद्धिके द्वारा अर्थका भले प्रकार निश्चय करलेनेवाले सम्यदृष्टि जीव धर्म के धारक और लोकके लिये शरण्यभूत हुआ करते हैं। तथा उनके चर
१--बी अपने राज्य में नहीं है इसके संग्रहको योग और जो है उसकी सुरक्षा तथा वृद्धिको क्षेम कहते हैं। २ – वलवान दुर्बलं ते इति मात्स्यन्यायः ।
३-ति० प० गाथा नं० १२६२, १३६३ ।
४- पं० भूधरदासजीने पुरुषार्थसिद्धयुपायकी टीका में प्रथम तीन कल्याणक ही अभ्युदय शब्द
खेमाने है ।