Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj

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Page 388
________________ wwwmore चन्द्रिको टीका महनीमा श्लोक -सम्राट है क्या वह १८ प्रकारकी प्रकृतिमा लामित्व नहीं रहता प्रिया उसके लिये अठारह प्रकारकी प्रकृतिमें मंत्री और अमात्य परिगणित नहीं किये गये हैं। उचर-मंत्री और अमात्य चक्रवर्तक भी रहा करते हैं। परन्तु उनको रत्नों में नहीं गिना है। केवल चक्रवर्तीके विचारमें सहायक होते हैं। किये जानेवाले कार्यके विषय में वे योग्य अयोग्यका परामर्श करने में केवल अपने बुद्धिबलमे सहायता करनेवाले हैं। वे किसी मी कृतिकर्म को स्वयं करनेवाले नहीं हैं। किन्तु जो रन-चेबनरल हैं चे चक्रवर्तीकी आज्ञानुसार काम करनेवाले हैं। इस प्रकार दोनों में बहुत बड़ा अन्तर है । एक ती केवल सम्मति या परामर्शमाअको देने वाले हैं और जो रन हैं वे सब उस सम्मत कार्ययो निष्पन्न करनेवाले हैं। दूसरी बात यह भी है कि जिस तरह ये रख आज्ञाका पालन करते हैं उसतरह मंत्रीगण प्राज्ञा का पालन नहीं करते। क्योंकि उनका वर्तव्य केल राजाके हिताहितके साथ ही बन्धा हुआ नहीं है, प्रजाके हिताहित के साथ भी सम्बन्धित है। मतलब यह कि मंत्रीगण राजा और राज्यके साथ साथ प्रजाके भी हिताहितका प्रतिनिधित्व करते हैं । इस तरह विचार करनेपर रनोंकी अपेक्षा मन्त्रियों का कार्य अधिक महान् कठिन और गुरुकर भा१ है । रनोंका उद्धोख वो उसके पुण्य फलका प्रतिशय बताना है। जिससे मालुम होता है कि उसके भोगोपभोग इनके निमित्तसे उसकी इच्छाके अनुकूल और सहज ही सिद्ध हो जाया करते हैं । अतएव ये मोगोपभोगक अथवा धर्म अर्थ और काम पुरुषार्यक असाधारण साधन हैं। ऊपर कहा गया है कि भूमि शम्द उपलक्षण है । अपव उसका अर्थ वर्षा स्मधर्मवती प्रजा करना चाहिये । सो क्या जहाँकी प्रजा वर्णाश्रम धर्मका पालन करनेवाली नहीं है यहाँ कोई राज्य व्यवस्था नहीं है ? यदि नहीं है तो आगममें धर्मकर्मसे रहित म्लेच्छोंकर भी राज्यों का जो उल्लेख पापा जाता है क्या वह मिथ्या है ? अन्यथा केवल वर्णाश्रमवर्मके पालन करने वाली प्रजाके पालनको ही राज्य कदना फयुक्त आगमाविरुद्ध अथवा मिथ्या क्यों नहीं कहना चाहिये। उचर--ध्यान रहे यह प्रकत विषय परममाम्राज्य नामक परमाथानसे सम्नन्धित है। जिस तरह कोई भी मनुष्य क्यों न हो जहांतक "मनुष्यगति मनुप्य आयुका उदय जिनके पाया जाय उनको मनुष्य कहना चाहियं" इस लक्षर पर दृष्टि रखकर विनार किया जाय तो वह मनुष्य ही है। परन्तु विचारशील व्य क्तयोंने उस प यकी वास्तविक सफलता पर और हित पर दृष्टि रखकर धर्महीन मनुष्यको पशुतुल्य३ कहा है। इसी तरह जहाँ पर्णाश्रम धर्मकी रक्षाका लक्ष्य १-प्रजाविलोपो नपतीच्या चेन् प्रजेच्छया चाचरिते स्वनाशः ॥ इत्यादि । यशस्तिलक २-चर्मकर्म यहिता त इमे माच्छका भताः ॥ शेषैरन्यैः समाचाररार्यावर्तन हे ममा मादि प० ३१-१४२। ३-धर्मेण हीनाः पशुभिः समानतः । कोफनीति

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