Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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रलकाण्डनावकाचार का दर्शन करने में समर्थ रहा करती है जिसका कि विषयक्षेत्र सबसे अधिक-सेंतालीस हजार दोसौ सठ योजन से कुछ अधिक बताया गया है । उसका शरीर एक कम छयान। हजार दूसरे वैक्रियिक शरीरोंका निर्माण करनेमें समर्थ रहा करता है जिनके कि द्वारा यह एक साथ सम्पूर्ण छयानवे हजार रानियों के साथ रमण कर सकता है। बजवषमनाराच संहनन, समचतुरस्र संस्थान आदि पुण्य प्रकृतियों के उदयसे अभेद्य अच्छेब सुन्दर शरीरसे विभूषित रहा करता है । सोलह हजार गणबद्ध देव जिसकी रचा किया करते हैं। कवय क्रिया
ओंमें से जो पांचवें परमसाम्राज्यका भोक्ता है । सम्यग्दृष्टियोंको प्राप्त होनेवाली चार जातियोगसे जो विजया जातिसे युक्त रहा करता है। इत्यादि अनेकों अतिशयका लाम चिना उनके कारणभूत विशिष्ट तपश्चरणोंके तथा उनसे उधोग्य पुण्यकर्मोकी प्राप्ति हुए बिना नहीं हो सकता । विशिष्ट बलकैलिये वीर्यान्नाय और भोगोपभोगकेलिये भोगान्तराय उपभोगान्तराय, असाथारण सम्पचि आदिके लाम केलिये लामान्तराय, तथा कल्पद्रुमर पूरन और पटा मजाको अभयदानालय दामान्तराय जैसे पापकर्मोंका तीन क्षयोपशम भावश्यक है। साथ ही उसतरह असाधारण शक्तियुक्त सातादनीय उच्चगोत्र एवं नामकर्मकी परय प्रकृतियोंके उदयके विना भी उन विषयोंका लाभ नहीं हो सकता। और न उन पापकोका चोपशम तथा उन पुण्यप्रकृतियोंका बन्ध विना सम्पावसहचारी प्रायश्चित्त विनय
यापत्य आदि अन्तरङ्ग और अनशन भवमौदर्य रसपरित्यागादि बाह्य तपश्चरणके हो सकता है। इस कार्य परंपरा के द्वारा उसके सम्यग्दर्शनका माहात्म्य स्पष्ट होजाता है। यपि यह ठाक है कि स्वयं सम्यग्दर्शन बन्दका कारण न होकर भोपका ही कारण है । फिर भी शहधात भी उतनी ही सत्य है भीर स्पष्ट है कि उसके साहचर्यले विना तयोग्य पुण्यकर्मों बन्धमें कारणभून शुभ सरागभावाम उस तरहकी असाधारण विशिष्टता नहीं पा सकती। यही कारण है कि चक्रवर्तीका वह सातिशय पुण्य उसके सम्यग्दर्शनको स्पष्ट कर देता है।
इस अवसर पर यह प्रश्न हो सकता है कि चक्रवर्तीके असाधारण पुण्य फलको बताते हुए नव निधि और १४ रत्वोंका उल्लंख किया है। किन्तु उसके मन्त्रियोंका कोई नामोनख नहीं है. इसका क्या कारण है ? साधारण राजाका स्वरूप भी अठारह प्रकारकी प्रकृतिका प्राधिपत्य३ बताया है। जिसमें कि मन्त्री प्रमागकी भी गणना४ कीगई है ! फिर जो राजाधिराज
१-गोम्मटमार जीव गा० नं १६५।
५-किच्छियोन दान जगदाशाः प्रपूर्य सः । पक्रिभिः क्रियते मोऽहयक्षः कल्पद मो मतः ॥२८॥ सागार अ०२।
३- पचला, गा० १-३६ ॥ ५-देखो तिक प. गा०४३, ४४ । तथा धवला १-३७, ३८, ३६ ।