Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj

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Page 383
________________ २६६ बनकर श्रावकाचार प्रकारके अन्य तथा छह रसोको उत्पत्ति हुआ करती है। पचनिधिसे रेशमी मूती आदि वस्त्र, पिंगलसे दिव्य आभरणोंकी, माणव निधि नीति शास्त्र और शास्त्रोंकी उत्पत्ति हुआ करती है। दक्षिणावर्त शंखनिधि से सुवर्ण, और सर्वरत्न से सर्व प्रकार के रत्नोंका लाभ हुआ करता है । मालुम होता है कि निधियोंकी यह संख्या जातिभेद उनके गुण धर्म और योग्यताकी अपेचासे ही हूं । संख्यात्री अपेक्षा नहीं। क्योंकि भगवान्के समवसरण में भी ये नव निधियां पायी जातीं हैं । समत्रसरण के प्रथम कोट - धूलिमालक गोपुरद्वारोंके मध्य में भी ये ही निषिय रहती हैं। परन्तु वहां पर प्रत्येक निथिका संख्याप्रमाण १०८ बताया गया हैं । इसपर से यह श्री संभव है कि चक्रवर्तीके भी इन निधियों में से प्रत्येकका प्रमाण एकसे अधिक हो । I रत्न शब्दके अनेक अर्थ होते हैं। यहां पर इसका अर्थ " अपनी-अपनी जातिमें उत्कृष्ट ३ ऐसा करना चाहिये । चक्रवतीं पाये जानेवाले ये रत्न कुल १४ हैं। जिनमें ७ चेतन और • अचेतन हैं । सेनापति (अयोध्या) गृहपति (कामवृष्टि) स्थपति (भद्रमुख) पुरोहित ( बुद्धिसागर ) हाथी (विजयपर्वत) घोड़ा (पवनंजय) स्त्री (सुभद्रा ) ये सात चेतन रत्न हैं। और चक्र (सुदर्शन) छत्र (वयप्रभ) दएड (थंण्डत्रे) खड्ग (नन्दक) कणि (मणि) चर्म (वज्रमय) और काकिणी ( चिन्ताजननी) । ये सात अचेतन रत्न ४ हैं । यों तो चक्रवर्ती की विभूति अपार है जिसका कि नामनिर्देश श्रादिपुराण में किया गया है । परन्तु यहां पर मुख्यभूत नवनिधि और चौदह रत्नोंका ही उसकी अधीश बताया गया है। अधीश शब्द अन्य ईशों— स्वामियोंकी अपेक्षा जिसमें अधिकता पाई जाय उसका बोग कराता है । अर्थात् चक्रवर्तीका प्रभुत्व उन सबके ऊपर है। क्योंकि जितने रत्न हैं वे सक एक-एक हजार देवोंसे रचित हैं परन्तु चक्रवर्ती उन सबका स्वामी तो है ही, साथ ही सोलह बजार गणबद्ध देवोंके द्वारा रक्षित है। नवनिधि और चौदह रत्न, जिनका कि यहां उल्लेख किया गया है वे उपलक्षण मात्र हैं। इस कथन से विभिन्न नरेशों— भूमिगोचरियों और विद्याथर राजाओंके द्वारा तथा अधिकृत १- इसके लिये देखो भा० पु० प० ३७ श्लोक ७५-८२ ॥ तथा देखो ति० परणसी अ० ४ गा० नं०७४० ॥ २--काल-महाकाल-पांडु- मानव-संखाय पउम बाइसप्पा | पिंगल-गाणारयणो अन्तरयहाणि विहि पदे ॥ ७३ ॥ ति० प० ॥ ३- आती जाती यदुत्कृष्टं उप्तद्रत्नमिहोच्यते ॥ ४- देखो आदि पु० पर्व ३७ ॥ -- यथा "रक्ष्यं वेदसहस्र ेण च दण्डश्च तादृशः । जयगमिदमेवास्य दुवयं शेषः परिच्छदः ॥ ३ ॥ आदि ० २८ तथा ३७-१८२ ।। ६ - षोडशास्य सहस्राणि गणबद्धामराः प्रभोः । ये युक्ता धृतनिस्त्रिंशाः निधिरत्नात्मरक्षणे ॥ १४५ ॥ आदि पु० प० ३७ ॥ गणनद्धदेवोंकी संख्या आदि पुराणमें १६ हजार बीर ति पणतीमें ३२ हजार बताई है " माद्धदेवभामा बत्तीस सहस्स साथ अमिषांमा

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