Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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चंद्रिका टीका अडतीमा भोक क्षेत्रके अधिपति व्यन्तरेन्द्रों एवं देवियों के द्वारा भेटमें आये हुये सब रत्नों प्राभूपों वथा प्रचुर दिव्य भोगोपभोगके साधनों आदिका भी संग्रह समझ लेना चाहिये।
सर्वभूमिपतयः-पान्ति रक्षन्ति इति पतयः । सर्वा चासौ भूमिश्च सर्वभूमिः = पसरवसुन्धरा । तस्याः पतयः सर्वभूमिपतयः।
न भूमि वसुन्धरा पृथ्वी आदि शब्द पर्याय वाचक हैं । सर्व शब्दमें उत्तरसे हिमवान और पूर्व दक्षिण पश्चिममें लवए समुद्रकी सीमा के अन्तर्गत जितनी भूमि है उतना प्रमाण समझना पादिये । गंगा सिन्धु और विजयार्थ पर्वतसे इस भूमिकै बह खण्ड हो गये हैं। चक्रवती इस सम्पूर्व भूमिका स्वामी हुआ करता है।
भूमि शन्द भी इस कारिकामें उपलक्षण ही है। जिस तरह मोवशास्त्रके अ०३ सूत्र नं० २७में आये हुए भरत ऐरावत शब्दोंका अर्थ तत्स्थ मनुष्य और उनके अनुभव साधु शरीरोत्सेध आदि किया गया है। उसी प्रकार यहां भी भूमि शब्दका अर्थ केवल पृथ्वी हीन करके शासन सिद्धान्त-अर्थशास्त्र४ अथवा राजनैतिक व्याख्याके अनुसार पर्वाश्रम धर्मका पालन करनेवाली प्रजा करना चाहिये । यद्यपि आकाश प्रदेश पंक्तियों के प्रमाणकी अपेषा वट्सएडभूमिका प्रमाण---चक्रवर्तक उपभोग योग्य क्षेत्रका प्रमाण सुनिश्चित है फिर भी उत्सर्षिणी अवसर्पिणी कालके प्रभावसे इस क्षेत्रमें वृद्धि हास हुमा करता है। किन्तु उसके अधिकृत क्षेत्र में प्रामादिककी संख्या जो निर्धारित की गई है वह नियत ही है ।
___यह शब्द मुख्यतया चक्रवर्ती धर्म पुरुषार्थको व्यक्त करता है। क्योंकि यह सम्पूर्ण प्रजाके हितका सर्वोपरि रक्षक है। अतएव इस शब्द का अथ समस्त प्रजाका पालन पोषण करनेवाला ऐसा करना चाहिये।
चक्रं ववितु प्रभवन्ति-चक्र यह एक दिव्य अस्त्र है। जो कि चक्रव के शस्त्रागारमें उत्पन्न हुशा करता है। इसमें एक हजार अर-फल हुमा करते हैं और एक हजार देवोंके
३॥ १३७५ ।। ति०प०॥ १-भूमिभूः पृथिवी पृथ्वी, गहरी मंदनी महो। " | ५ || . ना २-वि०प० गाथानं १०८, १७८ अ०४६ तथा राजवर्तिक १०३ स१० १०या०३ और उसका भाप्य । ३-- तयोः क्षेत्रयो दिवासी स्तः, असंभवात्। तत्स्थाना मनुष्याणां सद्धि हासी भवतः । किंकृतो घृद्धिद्वासौअनुभवायुःप्रमाणादिकृतौ । स० सि ॥ तातभ्यासा
दसिर्भरतैरावतयोखिहासयोगः। अधिकरणनिर्देशो वा ॥ तास्थानां हि मनुष्यादीनामनुः भवायुःप्रमाणदिकनौ वृद्धिासौ ॥ श्लो० वा० स०३ सू० २८, २९ ॥ ४-मोलिबाबा सू० ४-० तथा अ० १६ सू० ॥
देखो मा० पु०प०३७ । तथा तिलोय प० चतुर्थे महाधिकार । ६-हथियार तीन तरहके हुआ करते हैं। -अस्त्र, शत्र, श्री दिव्यास्त्र
--अर्धचकांके भी होता है। परन्तु प्रतिनारायण का उसके द्वारा बघ भी हुआ करता है। का पका पापोदय है कि अपने ही अस्त्रसे अपना ही घात दो। चक्रवर्ती के ऐसा नहीं होगा।