Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj

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Page 380
________________ चन्द्रिका टीक्र अड़तीस श्लोक १६३ दिया है। उसी आशयको ग्रन्थकारभी यहां इस शब्द के द्वारा स्पष्ट कर रहे हैं। अर्वाचीन आषायोंने भी इस जिनभक्तिका अपूर्व माहात्म्य बनाते हुए उसको दुर्गति के निवारण पुण्य पर्यायों की प्राप्ति और परमस्थान निर्माणकी सिद्धिमें भी कारण बताया है । अतएव प्राचार्य भगवान् ने सम्यग्दृष्टिको— क्योंकि वह नियमसे जिनभक्त हुआ करता हैं, “जिनंन्द्रभक्त " इस नामसे कहकर उसको उस जिनमक्तिका जो बसाधारण वैभव एवं ऐश्वर्य के साथ देवेन्द्र पद वकका पुण्यफल प्राप्त हुआ करता है उसीका यहां निर्देश करके इस विषय सम्बन्धित भागम की मान्यताका भी स्पष्टीकरण कर दिया है। इस तरह सम्यग्दर्शनके निमित्तसे प्राप्त होनेवाले अभ्युदयिक फलोंमेंसे सुरेन्द्रता नामक परमस्थानका और उसके साथ ही ऐन्द्री नामकी जातिका वर्णन करके क्रमानुसार परम साम्राज्य नामक पांचवें परमस्थानका तथा उसके साथ ही विजया नामकी जातिका भी साम सम्यक्त्वके ही निमिचसे हुआ करता है, यह बताते हैं- नवनिधिसप्तद्वयरवाधीशाः सर्वभूभिपतयश्वकम् । वर्तयितुं प्रभवन्ति स्पष्टदृशः क्षत्रमौलि शेखर चरणाः ॥ ३८ ॥ अर्थ- स्पष्ट है सम्यग्दर्शन जिनका ऐसे भव्य प्राणी नव निधि, चौदह रतनोंके स्वामी सम्पूर्ण — पट्खण्ड भूमिके पति और चक्र सुदर्शन चक्रको अपनी इच्छानुसार प्रवर्तित करने में समर्थ हुआ करते हैं । तथा उनके चरण मुकुटाद्ध राजाओंके लिये शेखरके स्थानापन्न हुआ करते हैं । प्रयोजन — ऊपर के कथनसे ही यह तो स्पष्ट है कि सम्यग्दर्शनके फलका वर्णन करते हुए जब आचार्य सप्त परमस्थानरूप प्राभ्युदयिक फलको बता रहे हैं तब चौथे सुरेन्द्रता परमस्थान के अनन्तर परमसाम्राज्य नामके पांचवे परमस्थानका वर्णन भी स्वमायसे ही कम प्राप्त है। दूसरी बात यह भी है कि मोक्षमार्ग में – संसारके दुःखोंसे छुटाकर उत्तम सुख मार्ग स्वरूप तीर्थ के प्रवर्तनमें सुरेन्द्रका उतना उपयोग नहीं है जितना कि चक्रवर्तीका है। तीर्थकर भगवान् के उपदेशकी उत्पचि वृद्धि और रक्षा में गणधर देवके बाद यदि कोई बाह्य भयचर निमित्त कहा जा सकता है तो वह परम सम्राट् - चक्रवर्तीका ही पद है। यह सर्वविदित है कि district दिव्यवनिका निर्गम गणधर देवके बिना नहीं हुआ करता । यह एक प्रकार ९ -- एकैव समर्थेयं जिनभकिदु' गति निवारयितु' ! पुण्यानि च पूरयितु ं दातु मुक्तिश्रियं कृतिनाम || स्कि ॥

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