Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj

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Page 379
________________ ANMaharnama VAAAA लावताचार इसी तरह कुछ लोगोंका कहना है कि “योगशक्ति अथवा प्राणायाम आदिके द्वारा भायुका प्रमाण अधिक भी हो जाया करता है क्योंकि भायुकी स्थिति श्वासोच्छवासपर निर्भर है। अतएव जो व्यक्ति समाधि द्वारा अथवा प्राणायामके द्वारा श्वासोच्छ्वासको अथिक काल तक रोककर रख सकते हैं उनको भयुका प्रमाण भी बढ़ जाता है। ये दोनों ही मान्यताएं वास्तविक नहीं हैं । दिगम्बर जैन आगमके अनुसार मनुष्य और तिर्योंकी वर्तमानमें उदयको प्राप्त आयुझमकी स्थिति योग्य कारण मिलने पर पूर्ण होनेके पहले भी समाप्त हो जा सकती है। ऐसे व्यक्तिका उदीर्णा अथवा अपवर्तनके द्वारा असमयमें मरण होना भी माना गया है जो कि सर्वथा सत्य है। हां, यह ठीक है कि बध्यमान-परमवसम्बन्धी जो आयु बन्ध चुकी है, उसकी स्थितिमें उत्कर्षण और अपकर्षण हो सकते हैं। परन्तु उसकी उदीर्णा नहीं हो सकती । किन्तु जो भुज्यमान प्रायु है-जिसका बंध तो पूर्व भवमें किया गया था। और उदय वर्तमान भवमें भारहा है उसकी स्थितिमें उत्कर्षण अपकर्षण नहीं हो सकता, उदीर हो सकती है। इस तरह विचार करनेपर मालुम हो सकेगा कि मनुष्योंकी अपेक्षा देवोंको अपने प्राप्त भौगोंको भोगने और चिरकाल तक रमण करनेमें उनकी आयुकी अनपवर्यता भी एक बड़ा साधन है। इस अनवत्येताका सम्बन्ध मभी देवोंके साथ है। फिर जो सम्यग्दृष्टि हैं. सम्परत्वके सान्निध्यके कारण सातिशय पुण्य विशेषका संचय करके इन्द्र अथवा असामान्य देवपर्यायको प्राप्त कर चुके हैं उनका तो कहना ही क्या है ? आचार्यश्रीने अपने इस ग्रन्थमें जहां सम्यग्दर्शनको महत्व दिया है वहां उन्होंने उसके लिये प्रकरणके अनुसार सार्थक एवं कारणगर्मित भिन्न भिन्न शब्दोंका भी प्रयोग किया है। यहां पर भी सम्पदृष्टिके लिये जो जिनेन्द्रभक्त शब्दका प्रयोग किया है, वह भी सहेतुक है। इसके द्वारा वे बताताना चाहते हैं कि सभ्यग्दृष्टि जीवके जो भक्तिका विशिष्ट शुभराग भाव हुआ करता है उसके द्वारा इस तरहके पुण्य विशेषका पन्ध हुआ करता है जिसके कि कारण उसे देवेन्द्रोंके वैभव और ऐश्वर्यसे युक्त अवस्था प्राप्त हुआ करती है । ग्रन्थकर्चासे पूर्ववर्ती महान् आचार्य मङ्गलरूप कुन्दकुन्दने जैसा कि मुनियों की प्रधानतासे प्रवचनसारमें जिनमत्तिके फलका निर्देश किया है। तथा रयणसारमें श्रावकोंके लिये मुख्य धर्मके रूप में जिसका उपदेश -यह अजैन-वैदिक मान्यता है इसके आधार पर ही उन्होंने कृप परशुराम आदि अपियोंको पिरजायी-सशरीर मुक माना है। २-देखी टिप्पणी न०२ ३-देखो गो सार .. ४-जो तं विट्ठा तुट्ठो अम्भुष्टि कवि सका। बंदपणमसणादिहि ततो सो धम्ममादियदि ॥१०॥ तण गरा र तिरिच्छा देवि वा माणुसि गर्दि पप्पा । विहघिस्सरियहि सया रांपुषणमणोरहा दोति ॥१०॥ प्र० स० अ० १ जयसेनाचार्य तात्पर्यवृशि । ये दानों गाथाएं मुद्रित प्रतिमें इस तरह क्षेपक पिम्हके साथ . इससे नम्बर पर दी है। -दाणं पूजा मुक्खा सावधारा धम्मो॥

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