Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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चन्द्रिका टीका सैतीस श्लोक जाता है वह तीन विशेषणों के द्वारा यहां दिखायागया है । इसके सिवाय देवोंकी सभाके रूपमें उन्हे देवोंका आधिपत्य तथा भौगोपभोग एवं क्लिासके साधनकी शामग्री के रूपमें अपनी देवानामोंके सिवाय नृत्यादि करनेवाली अप्सराओं-अभिनेत्रियोंका भी असाधारण लाभ हमा करता है। और उन्हें यह सुखसामग्री भोगनेका अवसर थोड़ा नहीं चिरकाल-सागरोंतकका प्राप्त हुआ करता है।
चिरकाल तक रममा करते रहते हैं यह कहनेका तात्पर्य भी यह है कि इस भक्के थारण करनेपर उनको वे बाथक कारण प्राप्त नहीं हुआ करते जोकि मनुष्यभवमें सुलभतया उपस्थित रहा करते है । क्योंकि मनुष्य पर्यायमें आथि व्याधि जरा और मरणकं जो साधन प्रायः सभी को प्राप्त मा करते है वे देव पर्यायमें सामान्यतया किसी को भी प्राप्त नहीं हुआ करते। सम्पतिकी रक्षा आश्रितोंकी रक्षा अपनी रक्षा तथा राजा चोर अग्नि आदिका भय, अपयश अपमान एवं अन्य अनेक प्रकारकी ईति और भीतिसे जिस प्रकार मनुष्य चिन्तित और भयातर रहा करता है उसप्रकार देव नहीं रहा करते । जिस तरह मनुष्य वान पिच श्लेष्मा और रक्तकी अस्थिरता न्यूनाधिकता और विषमता के कारण अनेकों रोगास पीडित रहा करता है उस प्रकार धातु उपधातुसे रहित बैंक्रियक शरीरके धारक देव नहीं रहा करत | अर्थमृतक सम बनादेनेवाली-जरा-वृद्धावस्थासे मनुष्य जितना दुःखी होता है- सब तरहसे असमर्थ होकर खिम होजाया करता है वैसा निर्जर पर्यायमें नहीं हुआ करता । इन कथित कारणों से तथा अन्य भी भनेकर भागमोक्त कारणोंस जिस प्रकार मनुष्य असमयमें ही---उदीर्णा एवं अपवर्तनके द्वारा प्रायुको पूर्णतया भोग विनार ही गत्यन्तरको प्राप्त हो जाया करता है वैसा दिव्य शरीवाले अमरोंका नहीं हुआ करता । वे अपनी पूर्ण श्रायुको भोगकर ही वहां से च्युत हा को
कुछ लोगोंकी समझ है कि मनुष्य भी असमयमै मृत्युको प्राप्त नहीं हुआ करता उसकी प्रायस्थितिका भी मध्यमें खण्डन-द्वास-अपवतेन नहीं होता वह भी अपनी उपाच श्रायुकर्मकी स्थितिको पुरा भोगकर ही मरता है। जिनका असमय में मरण कहा जाता है वास्तवमें उनकी भायुस्थिति ही उतनी ही समझनी चाहिये । वियपारस्तम्खमभयमत्थरगाणास' लसहिं । उसासाहाराणं गितहदो छिज्जदे आऊ ।। पो० सा०॥
२-औपपादिकचरमोत्तमदासल्यय युषानपवायुषः ॥५३॥ त० सू० अ०२॥ बाह्यस्योपचास निमित्तस्य विषशस्त्रादेः सति सन्निधाने हवं भवतीत्यपवयम् ।.."न धपामोपपादिकादीनां नामानिमित्त वसादायुरपर्यंते इत्यय नियमः । इतरेपामनियमः ।। स० सि.।
३-देखा "ममयसार-प्रवचन" भाग तीसरा ३३५ श्री कानजी स्वामीके प्रवचनोका संभव प्रकाशक श्री पही० पाटनी का ट्रस्ट मारोठ, मई १६५२) "जब सर्प काटता है और मनुप्य मर जाता है तब लोग यह समझते हैं कि बेचारा घेमीत मर गया किन्तु यह मिथ्या है क्योंकि जब आय पाहोरही हो तो विष घट जाता है और वह मर जाता है। मदि श्रायु शेष होती है. तो विष उतर जाता है और वह जीवित रहता है यादि ।