Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj

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Page 369
________________ २५२ राजकररावकाचार करना चाहिये अथवा दूसरे किन्ही आठ गुणों का ग्रहण करना चाहिये यह बात विचारतीय है। कारण यह कि प्रथम तो श्रागममें' त्रिक्रियाके आठ ही भेद न गिनाकर अनेक भेद बताये हैं । अतएव उसके आठ ही भेद बताना उचित प्रतीत नहीं होता । दूसरी बात यह कि देवोंको पर्यायाश्रित गुणों में एक विक्रिया ही नहीं अन्य भी अनेक गुण प्राप्त हैं। अतएव यदि एक ही विक्रिया गुणके आठ भेदोंको आठगुणोंके स्थानपर गिना जाय तो शेष गुणों का संग्रह नहीं हो पासा | सात गुण छूट जाते हैं । अतएव इस म्याप्ति और श्रतिव्याप्ति दोषका वारण करनेके लिये उचित हैं और आवश्यक है कि इस शब्दसे केवल विक्रियाका ही नहीं अपितु मिश्र भिन्न आठ गुणों का ग्रहण किया जाय अर्थात् अष्टभेदरूप विक्रियाको एक ही गुण मानकर शेष सात गुण और भी लेने चाहिये । और उनको सम्मिलित करके ही आठ गुण गिनना चाहिये । इन सात गुणांक स्थानपर स्थिति प्रभाव सुख द्युति लेश्या विशुद्धि इन्द्रियविषय और श्रवधिविषय इनको सम्मिलित करना चाहिये । अथवा इन सात भेदोंके सिवाय विक्रियाको न गिनकर उसके स्थानपर देवगतिको गिनना चाहिये। इस तरहसे भी भाठ गुण होजाते हैं । और उनमें प्र यः देवगतिसम्बन्धी सभी विशेष गुण संगृहीत होजाते हैं । इस तरहसे संगृहीत इन आठ गुखों का अर्थ संक्षेपमें इस प्रकार समझना चाहिए। -A १ – देवगति तद्योग्य आयु और गति नामकर्मके उदयसे होनेवाली जीनकी कर्यजन पर्याय | अथवा विक्रिया - अपने प्राप्त शरीरसे भिन्न अथवा अभिन विचित्र एवं विविध आकार नाने की योग्यता । श्रखिमा - इाना छोटा शरीर बना लेना कि कमल के छिद्रमें भी प्रवेशकर वहीं बैठकर चक्रवर्तीके भी परिवार एवं विभूतिको उत्पन्न कर सकना । महिमा - मेरुसे भी बड़ा शरीर बना लेना । लघि भी इलका शरीर बनालेना। गरिमा-बजूसे भी मारी शरीर बनालेना | प्राप्ति -- पृथ्वीपर बैठे बैठे ही अङ्गलिके अग्रभाग द्वारा मेरुकी शिखर या सूर्य विश्वका भी स्पर्श कर सकना । प्राकाभ्य – जल पर भूमि की तरह चलना और भूमिमें जल की तरह डुबकी लगाना और उचलना आदि। ईशित्व चाहे जिसको वश कर लेना । । --- -uddh २ - स्थिति प्रमाण ३ प्रभाव - शापानुग्रहशक्ति, ४ सुख - साता वेदनीय कर्म के उदय से प्राप्त इष्ट विषयोंका अनुभव, ५ धुति-शरीर वस्त्र भूषणांकी दीशि- कान्ति, १० राजवार्तिक अ३ सू० ३६ वा० २ का भाग्य-विक्रयगोचरा ऋद्धरनेकवधा अणिमा महिमा लचिमा गरिमा प्राप्तिः प्राकाम्वमीशित्वं वशित्वमप्रतिधातोऽन्तर्धानं कामांपत्यमित्येवमादि। इन सब लक्षण भी भिन्न भिन्न वहां बताये गये । ફ્ २- देखो त० सू० अ० ४ सूत्र २० ॥ ३ - इनके सिवाय विक्रिया के अन्तर्धान- अटश्यरूप होजाना तथा कामरूपित्व - एक समय में अनेक और नाना प्रकार के रूप बनाना आदि और भी है। किन्तु यह बात यहां ध्यान में रहनी चाहिये कि विक्रियाले सुनिको लक्ष्य करके श्रागम में इन भेदों का जो अर्थ बताया है तदनुसार ही हमने यहां लिं है। देवां उनके योग्य जागमानुसार समझना चाहिये ।

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