Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj

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Page 362
________________ चनिका टीका छत्तीसवां श्लोक सद्गृहित्व एवं पारिवाज्यस सम्बन्धित ओज तेज विद्या वीर्य आदि प्रकृतमें बताये गये गुणोंमें भी जो विशेषता रहा करती है वह भी दृष्टि में पा सकती और समझी जा सकती है। इसी प्रकार प्रकत कारिकामें सम्यग्दर्शनके इस आभ्युदयिक फल वर्णनमें तीन परम स्थानोंका जो उल्लेख किया है उनमसे प्रत्येकके साथ ओज आदि गुणोंमें जो अपने अपने योग्य विशेषता पाई जाती है वह भी ध्यानमें लेनी चाहिये । क्योंकि यद्यपि ये गुण एक ही नामके द्वारा बताये गये हैं और एकही है भो, फिर भी इन गुणोंके कार्यकी प्रकटताके लिय क्षेत्रभेद हो बानेपर वे अपने अपने कार्यको यथायोग्य क्षेत्रके अनुसार ही दिखा सकते हैं । अतएव जो ओज या तेज या विद्या आदि गुण कुलीन व्यक्तिमें उस कुलकी परम्परागत सदाचार सम्बन्धी महता अथवा विशेषताको दिखावेगा वही गुण सद्गृहस्थमें आनुवंशिक अर्थाजन संरक्षण विनियोगके विषय में अपनी विशिष्ट योग्यताको और पारिवाज्य परमस्थानको प्राप्त व्यक्तिमें संयम तप आदिक रूपमें अपनी असाधारण चमत्कृति अविचलता अक्षुब्धता आदिको दिखानेवाला होगा। अतएव गुण एक ही रहने पर भी उनका उपयोग या कार्य भिन्न भिन्न रूपमें ही होगा । और वह भी मिथ्या दृष्टिकी अपेक्षा सम्यग्दृष्टि का गुण अपनी असाधारण विशेषतासे ही युक्त रखेगा अथवा पाया जा सकेगा। इस अवसर पर यह स्पष्ट करदेना भी उचित और आवश्यक मालुम होता है कि आचार्य भगवान्ने-सम्यग्दर्शनके आभ्युदयिक फलोंको बताते हुए सबसे प्रथम जो इस कारिकामें सज्जातिव आदि तीन परम स्थानोंको बताया है वह सधारण बात नहीं है । ये तीनों ही विषय मोक्षमार्गकी सिद्धि में मूलभूत साधन हैं। जिस तरह रत्नत्रय अन्तरंग असाधारण मुख्य साधन है उसी प्रकार ये तीन परमस्थान बाह्य साधनों में सबसे मुख्य और प्रधान साधन हैं। जिस प्रकार रत्नत्रयमेंसे किसी भी एकके बिना निर्वाण प्राप्त नहीं हो सकता उसी प्रकार इन तीन चार साधनों से भी किसी भी एकके न रहने पर भी यह जीव सर्वभा मोचको प्राप्त नहीं करसकता है। सम्यग्दर्शन मोलके अन्तरंग साधनों में प्रथम स्थानीय है यह बात ऊपर बताई जा चुकी है। स्वयं ग्रन्थकारने भी यह अच्छी तरह स्पष्ट करदिया है। किन्तु यह बात भी सुस्पष्ट है कि क्रिधान साधनोंके विना वह भी अपना वास्तविक प्रयोजन सिद्ध करनेमें सफल नहीं हो सकता अतएव आचार्य भगवान् बताना चाहते हैं कि वह सम्यग्दर्शन अपने सहचारि शुभसराग परिखामोंसे सबसे प्रथम यह लाभ उठाना चाहता है कि अपने लक्ष्यकी सिद्धिमें जो सर्वाधिक साधन हैं उनको वह प्रप्त करले । फलतः वह परात्मनिन्दाप्रशंसा आदि नीचगोत्रक कारबभूव परिणामोंका साहचर्य छोडकर उनके विरोधी-एव नीचे त्यनुत्सक मादि परिणामों के बलवसर १-गुणोंकी भानुवंशिक विषता के लिये देखा भावि पु० २० १५ श्लोक ११६, १७, १८ ॥

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