Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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चंद्रिका टीका इक्झौसर्वा श्लोक क्रिया कौन करेगा ? कर्म के विना पदि क्रिया की भी जाय तो वह व्यर्थ होगी । करणके विना भी यदि कर्चा कार्यको सिद्ध करले सकता है तो पहले ही क्यों नहीं करनेता ? इसी तरह यदि कर्ता कूटस्थ हो–क्रिया ही न करे अथवा न करसके तो भी किस तरह प्रयोजन की सिद्धि हो सकती है ?
प्रकृतमें आत्मद्रव्य का, उसकी शुद्ध अवस्था कर्म, और उसीकी असाधारण साधन रूप शक्तियां करमा है। सम्यग्दर्शन या श्रद्धान यह क्रिया है जिसका कि श्राशय अपने शुद्ध भन्तः स्वरूपकी तरफ उन्मुख होनेसे है । इनमें से एक भी ऐसा नहीं है जिसके कि बिना अभीष्ट साध्य सिद्ध हो सके ।
आत्मद्थ्य जो कि कर्ता है वह यदि न हो, उसको न माना जाय, अथवा जो उसके अस्तित्वको स्वीकार नहीं करता, उसपर जिस का श्रद्धान नहीं है वह निःशंक हो कर क्यों तो निर्याणके लिये प्रयस करेगा और क्यों उसके उपायको भी जानने आदि की पेष्टा करेगा क्योंकि आत्मद्रव्य के अस्तित्वको मान लेनेपर ही श्रेयोमागंके जानने की इच्छा हो सकती है। इसी तरह जो व्यक्ति प्रात्मद्रष्यको तो मानता है परन्तु उसकी संसारातीत शुद्ध अवस्था का होना या होसकना स्वीकार नहीं करता यह भी उसके लिये प्रयल क्यों करेगा ? उसकी दृष्टि में जब यह है ही नहीं सब यह उसको प्रप्ता करनेकी चेष्टा या इच्छा भी क्यों करेगा ? इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति प्रात्मद्रव्यका अस्तित्व स्वीकार करता और उसका अशुद्ध अवस्थासे शुद्ध अवस्था में परिणत हो सकना भी मान्य करता है, इन दोनों ही अंशोंपर उसका श्रद्धान है परन्तु उसके वास्तविक साधनोंपर विश्वास नहीं है। वह यथार्थ साधन-मार्ग....उपायसे तो उपेक्षा या ग्लानि करता हे और अयथार्थ उपायोंसे प्रीति करता है तो वह भी वास्तविक प्रयोजनको किसतरह प्राप्त कर सकेगा ? इसी तरह यदि कोई व्यक्ति इन तीनों विषयों को मानकर भी प्रयन नहीं करता तो वह भी फल को किस तरह प्राप्त कर सकता है। इस तरह विचार करनेपर मालुम हो सकता है कि इन चार भागों से किन्ही भी तीन भागांके माननेपर भी शेष एक भागके न माननंपर जीव अभीष्ट कार्य को सिद्ध नहीं कर सकता ।
आत्माकी द्रव्यता-कालिक सभा एवं उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकता तथा गुणपर्ययवत्ता न माननेवाला अपने ही विषयमें सदा शंकाशील रहनेवाला है । फलतः ऐसा नास्तिक और स्वरूप विपर्यस्त व्यक्ति निःशंक न रहने के कारण श्रेयोमार्गका कर्ता नहीं बन सकता तथा फलको भी प्राप्त नहीं कर सकता। इसी तरह जो संसार पर्यायके छूटनपर अपनी सिद्ध अवस्था होनेका श्रद्धान नहीं रखता, जो यह नही मानता कि हमारी यह वर्तमान संसार पर्याय है, वह दुःखरूप है वह छूटकर हमारी ही अनन्त सुखरूप शाश्वतिक अवस्था हो सकती है, वह संसारकी अवस्थाओंका ही निरंतर कांक्षावान रह सकता है। उन सबसे निकांक्ष होकर वह परम निःश्रेयसपदके १-योमार्गप्रतिपित्मात्मव्यासिका।