Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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रामकररहश्रावकाचार किंतु सच्चे तपस्वियों का ही सेवन करे जैसा कि भगवान जिनसेन स्वामीने बताया है किदृष्टव्या गुरवो नित्यं पृष्टव्याश्च हिताहितम् । महेज्पया च यष्टव्याः शिष्टानामिष्टमीदृशम् ।।
सम्यग्दर्शनका लक्षण वर्णन करते समय श्रद्धान रूप क्रियाके जो तीन विशेषण दिये थे उन मेंसे दो का विवरन पूर्ण काउच तीसरे विशेषण-'अस्मयं का व्याख्यान शेष है अतएव अवसर प्राप्त होने से आचार्य उसकी व्याख्या करते हैं उसमें सबसे पहले प्रकृत स्मय का स्वरूप और उसके भेद बताते हैं
ज्ञानं पूजां कुलं जाति, वलमृद्धि तपो वपुः ।
अष्टावाश्रित्य मानित्वं स्मयमाहुर्गतस्मयाः ॥ २५ ॥ अर्थ-ज्ञान पूजा कुल जाति बल ऋद्धि तप और शरीर इन आठोंके श्राश्रय से जो भमि___ मान किया जाता है उसको निर्मद आचार्य म्मय कहते हैं।
प्रयोजन-सम्यग्दर्शन जोकि धर्म अथवा मोक्षमार्ग में सबसे प्रथम एवं प्रधान पदपर अबस्थित है उसकी पूर्णता तथा विशुद्धता तबतक संभव नहीं है और नहीं वह अपना वास्तविक कार्य करने में ही समर्थ हो सकता है जबतक कि अंतरंग में स्मयका भाव बना हुआ है । मत एव सम्यग्दर्शन का लक्षण कथन करतेहुए जिन २ विषयोंका उल्लेख ग्रंथकारने किया है उन सभी का स्पष्टीकरण करके प्रकृत विषय के व्याख्यान को समाप्त करने के पूर्व उल्लिखित विषयर्मिसे इस अन्तिम विषय का भी स्पष्टीकरण करना उचित सथा आवश्यक है । यही कारण है कि सम्यगदर्शन की अस्मयताको बताने के लिए आचार्य मयका स्वरूप विषय और प्रकार यहाँपर बता रहे हैं । यदि इस विषयको छोड दिया जाय दूसरे शब्दोंमें यदि सम्यग्दर्शनका अस्मय विशेषण न दिया जाय तो स्पष्ट है कि स्मयके सद् भावमें भी सम्यग्दर्शन, पूर्ण शुद्ध और अपना कार्य करने में समर्थ माना जा सकेगा जबकि यह वात प्रयुक्त है-विपरीत है-और प्राणि पोंको धोखा देने बाली है। अतएव इसका विवेचन करना अत्यन्त उचित है और आवश्यक है। इसका कारण यह भी है कि प्रायः संसारी जीव बहिष्टि हैं, उनका स्वभाव नेत्रके समान है। जिस तरह नेत्र अपनेसे भिन्न अन्य पदार्थको देखता है परन्तु वह स्वयं को नहीं देखता, न देखही सस्ता है है इसीतरह संसारी जीव अपनेको न देखकर पर पदार्थ को ही देखता है। इसके सिवाय उसका बह देखनाभी मोहोदयके कारण अन्यथा ही होता है । संसार के जिन विषयों में उसने इष्ट या अनिष्ट की कल्पना कर रक्खी है उनमें से देवकी अनुकूलता वश यदिष्ट विषयोंका हाम होजाता है तोवर्यमें उत्कर्षकी भावना करता है-समझता है कि यह मैंने अपनी योग्यता-बुद्धि पातुर्य और पौरुष के बल पर प्राप्त कर लिया है। यदि अनिष्ट की प्राप्ति होजाती है तो दूसरेके प्रति दर्भावना १-यादिपुराण | -नेत्रं हि दूरे तु निरीक्ष्यमाणमात्मावलोके त्यसमर्थमेव ॥ यश