Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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चन्त्रिका टीका चौतीसवां श्लोक पूर्व भोगभूमिज और आठ वर्षको अायुसे पूर्व कर्मभूमिज मनुष्यों में सम्यग्दर्शन के प्रकट होने की अपात्रता है उसी प्रकार तीन गतिके जीवोंमें एवं मनुष्यों में भी द्रव्यस्त्री नपुंसक शुद्र मस ज्जातीय आठ वर्षसे हीन श्रायुवाले आदि समाज संगकी अपात्रमा लाली गई।
___ ध्यान रहे सकल संयमके लिये शरीर कुल जाति आयु थादिकी योग्यता रहते हुए भी वस्त्रसहित अवस्था भी बाधक या विरोधी ही है। वस्त्र धारण करते हुए भी उसकी ममता-- इच्छा-कपाय आदिसे अपनेको रहित प्रकाशित करनेवाली बातें यदि कोई करता है तो निश्चित ही वे अज्ञानियोंको सानेवाली छलपूर्ण ही मानी जा सकती हैं। वस्त्रोंको धारण करते हुए भी यदि कोई यह कहता है कि हमको इनसे ममत्व नहीं है, इनकी हमको इच्छा नहीं है, षा इनसे हमको कुछ भी कषाय नहीं है तो इस बातको एक पामर कन्या भी मान्य नहीं कर सकती क्योंकि यह ध्रुव सत्य है कि अंतरंगमें तयोग्य कपायके बिना उन चारित्रविरोधी बाह्य परिग्रहों का ग्रहण नहीं हो सकता । अस्तु।
प्राचार्यश्री यहांपर जो मोही मुनिसे निर्मोह गृहस्थको मोक्षमार्गमें स्थित और श्रेष्ठ बता रहे है उसका अभिप्राय स्पष्ट है कि वे अन्तरंग और बहिरंग दोनों ही कारणों को मान्य करते हुए बताना चाहते हैं कि अन्तरंग कारण के विना केवल बाह्य कारणसे मोक्षमार्गमें सफलता प्राप्त नही हो सकती। सो यह कथन युक्ति अनुभव आगम और पाम्नाय समीसे सिद्ध है। कोडरू मुंग जिसमें कि गलनेकी शक्ति ही नहीं है गलानेके लिये बाह्य प्रयत्न करनेपर भी गल नहीं सकती। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि जिस मुंगमें गलनेकी शक्ति विद्यमान है वह बाबगलाने के निमितोंके बिना ही कोटमें रक्खी रक्खी ही गलकर दाल बन जायगी। साध्य सिद्धि में माम साधनोंको सर्वथा अमान्य करनेवाला व्यक्ति तत्व स्वरूपसे उतना ही मनमा-अज्ञानी प्रथया एकान्त मिथ्यादृष्टि है जितना कि अन्तरंग साधनको सर्वथा अमान्य करनेवालार
___ इस प्रकार मोक्षमार्गकी संभूतिके साथ-साथ उसकी स्थिति भी सम्यग्दर्शनपर ही निर्भर है यह यहां बताकर उसकी पद्धि एवं कल्याणरूप फलोदय भी उसीयर प्राधित है। इस बात की कागेकी कारिकामें दिखाते हैं :
न सम्यक्त्वसमं किंचित् त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि ।
श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनूभृताम् ॥ ३४ ॥ ५-सागारधर्मामृत अ२ श्ला० ६८॥
२-पर्षभवसे मादे सम्बग्दर्शन साथ आरहा है सो वह यहां विवक्षित नहीं है। यहां तो प्रफट होने से मतलब उत्पन्न होनेसे है।
३-जइ जिणमयं पर्वजः ता मा अपहारणिच्छए मुबह । एकेण विणा छिज्जइ तित्थं अएरोण गुण सच्च ।। चरण करणापहाणा ससमयपरमत्यमुस्कवावारा । चरणकरणं समार गियसुद्ध ण जाति ।। णिछायमालवेता गिम्यता णिच्छय प्रजाता। णासिति परणकरए बाहिरफरणालसा कई॥