Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj

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Page 336
________________ चन्द्रिका टीमा पैतीसा श्लोक १६ अवस्थाम भोर दाब संक्लंशकं अवसरपर ही हुश्रा करता है । तद्वत् नियंगायुकर्मका बंध भी सासादन गुणस्थान तक ही संभव है । किन्तु यहांपर तो आचार्य कहते है कि सम्यग्दर्शनशुद्ध बीच इन अवस्थाको प्राप्त ही नहीं हुआ करता अत एव यह कथन अबद्वायुष्क सम्यग्दृष्टिको ही अपेक्षासे है ऐसा समझना चाहिए जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है। तिर्यक शब्दका अर्थ मी नारक शब्दके समान ही समझलेना नाहिये । अर्थात तिर्यगायु और निर्यग्गति नामकर्मके उदय से तथा कदाचित् तिर्यग्मत्यानुपूर्वी नामकर्मके भी उदय से जन्य द्रव्यपर्यायके धारण करनेवाले जीवको तिर्यक कहते हैं। किन्तु नैगम नयसे उन जीवों को भी तिर्यच कहा जाता या कहा जा सकता है कि जिनके तिर्यमायुकर्म का बंध तो हो चुका है परन्तु अभीतक उसका उदय नहीं हुआ है, केवल उसका सत्ता पाई जाती है । इस कर्मका बन्ध. सासादन गुणस्थानतक अर्थात् जदतिक शानन्तानुबन्धी कर्मका उदय पाया जाता है-उसकी म्युच्छित्ति नहीं हुई है, हुआ करता है । निरुक्तिक अनुसार त शम्दको अर्थ होता है कि "तिरः अधति इति तिर्यक" । अर्थात् जो कुटिलताको प्राप्त है--मायाचारके द्वारा जिस अवस्थाकी प्राप्ति होती है और वर्तमानमें भी जो कुटिलताको धारण करनेवाले हैं, विपुल संझानोंसे पूर्ण, निकृष्ट अझान तथा पापके बाहुरूपसे युक्त है उनको तिपश्च अनझना चाहिये । नपुसक-न स्त्री न पुमान् इति नपुसकः । इस निरुक्तिके अनुसार जो न स्त्री हो, न पुरुष हो-दोनों ही लिङ्गोंसे रहित है उसको नपुसकर कहते हैं। इसके दो भेद है-एक द्रव्यलिङ्ग दूसरा मावलिङ्ग । प्राङ्गोपाङ्ग नाम कर्म विशेषक उदयसे जिसका शरीर स्तन योनी आदि स्त्रीके योग्य चिन्होंसे तथा मेहन स्मश्रु अदि पुरुष चिन्हांसे रहित होता है, उसको द्रव्य नपुसकलिङ्ग कहते हैं । नपुसक वेद नामको नोकषायके उदयसे जिसके परिणाम पुरुपके साथ रमण करनेकी इच्छारूप स्त्रावेद और स्त्रीके साथ रमण करनेकी अभिलापारूप पुरुषवेदसरीखे न होकर दोनोंसे रहित विलक्षण ही थे उसको मार नपुसक समझना चाहिये । वेद और लिङ्ग पर्याय वाचकशब्द हैं। इसके योग्य कर्मका बंथ प्रथम-मिथ्यात्व गुणस्थानमें ही हुआ करता है, आगे नहीं। ____ इसीतरह स्त्रीशन्दका अर्थ समझना चाहिये । निरुक्तिके अनुसार स्तुणाति-स्वं परं या दोपराच्छादयति आपणोति सा स्त्री, जो अपनको और सरेको अनेक दीपांसे भाच्छादित करे उसको स्त्री कहते हैं। यह अर्थ प्रायोयादकी अपेक्षासे है । सिद्धान्तके अनुसार जो स्त्रीवेद १-तरगति काढलभान सुबिउलपण्णा गिट्ठमण्णाणा | अनंतपारबहुला तमा सरिया मगिया ६१४८। जी० का० पटल०१ गाथा नं. १५६ ॥ २-न स्त्री न पुमान् इति नपुसकः ॥ वित्थी रोष पमं घुसओ उभयलिंगनिरित्तो । इट्ठान नगसमाग गयणगरुओ लुमचित्तो ।।२७५ । जी० का। षटखं० गाथा नं. १७२ । ०६०५७-सिमुदएपर इटावागरिमारिण दोसु वि भाक खा उप्पज्जा सेमि गउसगवदोचि शरणा | तथापि"भावन सक बदोऽस्तीति भाचार्यस्प तात्पर्य हातम्यम् !! जी०प्र० टी०। .

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