Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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লগেথবা रुचिपूर्वक स्त्रियोंके सुन्दर अंगोपांगका अवलोकन करना एवं उनके संवनकी भावना आदि रखनेस स्त्रीवेद कर्मका आस्रव या बन्थ हुआ करता है।
परनिंदा, प्रात्मप्रशंसा, दूसरोंके सद्भुत गुणोंको ढकना-दबाना और अपने असद्भूत गुणोंको प्रकाशित करना, अपने ज्ञान पूज्यता फल जाति भादिके निमिनसे दूसरेका तिरस्कार करने, उपहास करने, निंदा करने, आदिका स्वभाव, धार्मिक पुरुषोंकी निन्दा अवहेलना करना, इसरेके यशका बात करना, अपकीति करना, गुरुमनोंका परिभव करना, उनके प्रशस्त गुणों में मी दोष लगाना, अन्य ठरहसे भी अपमान करना, उनकी भत्र्सना करना, अथवा उनका अंजलि-हाथ न जोड़ना, स्तुति अभिवादन अभ्युत्थानादि न करना, इत्यादि प्रचियोंके द्वारा भीषगोत्रकर्मका भाषेत्र हुआ करता है।
किसीके भी अंगोपांगोंका छिन्न भिन्न करना, विकारी बनाना या दोष लगाने भादिसे विकृत काण कुन्ज आदि भवस्थाके कारणभूत काँका श्राखब हुआ करता है। अथवा द्वादश मियोपपाद की निमित्तभूत क्रियाओंसे भी इस तरह के कर्मोका पासव एवं पन्ध हुमा करता है।
भागममें जीवस्थानोंके अन्तर्गत १४ जीव समास भी गिनाये हैं। और ये कई प्रकारसे बवाये गये हैं। उनमें एक प्रकार यह है १-बादर? २-सूक्ष्म एकेन्द्रिय ३ द्वीन्द्रिय ४ श्रीन्द्रिय ५ चतुरिन्द्रिय ६ असंशि पंचेन्द्रिय और ७ संझी पंचेन्द्रिय ! इनके पर्याप्त और अपर्याप्तके भेदसे १४ जीव समास हुमा करते हैं। सम्यक्त्वसहित जीव इनमें से संझी पंचेन्द्रियके पर्याप्त अपर्याप्त (नित्यपर्याप्त) इन दो भेदोंको ही प्राप्त किया करता है। बाकी १२ स्थानों को यह प्राप्त नहीं करता । उनको मिध्यादृष्टि ही प्राप्त किया करता है। अतएव इन १२ स्थानोंको मिथ्योपचार कहा जाता है। ये स्थान विकल---इन्द्रिय और मनसे रहित हैं अय: घे भी विकृत ही है। इनके कारणभृत कर्मोंका पासव भी सम्यग्दृष्टिके नहीं हुआ करता ।
हिंसा-निर्दयताके परिणामोंसे शुभ आयुकी स्थितिमें अल्पता अथवा अपवयता और पाप-नरक मायुकी स्थितिमें अधिकता उत्पन्न हुआ करती है। ऊपर जैसा कि कथन किया गया हैं ये सम्यग्दृष्टिको प्राप्त नहीं हुआ करतीं।
दरिद्रताका कारण असातावेदनीय अथवा मुरूपतया अन्दराय कर्मका उदय है । अन्तराय कर्मक बन्धके कारण सामान्यतया इस प्रकार है
झानका प्रतिषेध, किसी के सत्कारको न होने देना, तथा दान लाभ भोग उपभोग वीर्यमें विधन करना, स्नान अनुलेपन गन्ध माला वस्त्र भूषण शयनासन भक्ष्य भोज्य लेख पेय आदि भोगोपभोगमें निम्न उपस्थित करना, वैभव सम्पत्ति समृद्धि आदिमें विस्मय तथा द्रव्यमें ममत्व का त्याग न करना, दुसरेको द्रब्यका समर्पण न करना और उसका अदत्ति अथवा अपहरवादि
-बारामहविय वि ति पारिदय असमिसरणीय । पासापासा एवं त पावसा क्षेति ।।