Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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रलकरएडभावकाचार है कि तस्यतः इन भावांक न हनिमें सम्यग्दर्शमकी प्रादुर्भूति ही निमित्त है । साथ ही यह बात भी विदित हो जाती है कि इन भावोंके साथ सम्यग्दर्शनका उसी तरह सहानवस्थान विरोष है जैसे कि अन्धकार और प्रकाशका ।
नारक भानके साथ जिम हर एक पाटोदला ही नियत सम्बन्ध है वैसा निर्यग्भावके माथ नहीं, तिर्यक पर्यायमें तीनों ही वेदोंका अस्तित्व माना गया है। अतएव यथाक्रम वर्णन की दृष्टि में रखनेवाले श्राचार्य नारकभाव के अनन्तर तिर्यम्भावका और उसके भी अनन्तर क्रमसे अमरत्व और स्त्रीत्वका उल्लेख करके बताना चाहते हैं कि जिस तरह कदाचित् बदायुष्क सम्यग्दृष्टि नारक भावको पाकर नपुसक हो सकता है। क्योंकि वहापर यही एक वेद नियत है। घसा तिर्यगतिक विषयमें नहीं है। क्योंकि तिर्यग्गतिमें तीनों ही वेद पाये जाते हैं । इसलिये यदि कोई बद्धायुष्क सम्यग्दृष्टि तिर्यम्गतिको प्राप्त करता है तो यहाँ पाये जानेवाले वेदोमसे निम्नकोटिके माने गये नपुसकवेद और नीवेदको वह प्राप्त नहीं हुआ करता। इस तरहसे प्रथम वाक्यमें उत्तरोत्तर विशेषता बताई गई है। साथ ही दोनों घेदोंका पृथक उल्लेख इस बात की भी भूचित करता है कि सम्यग्दृष्टिको वेदप्राप्तिके विषयमें एक सामान्य नियम है कि वह जिस गतिमें भी जाता है वहां पाये जानेवाले वेदोंमेंस निकृष्ट वेद या वेदोंको नहीं, अपितु उत्तमवेदको ही प्राप्त हुशा करता है। यह नियम मनुष्य और देवगनिमें भी घटित होता है। क्योंकि यह सर्वत्र घटित होनेवाला सामान्य नियम है। यही कारण है कि सामान्य कथनको दृष्टिमें रखकर कहा गया प्रथम वाक्य प्रधान है।
ऊपर यह कहा जा चुका है कि अन्वाचय अर्थके कारण उचराधमें आया हुआ धाश्य पौण अर्थको बताता है। नथा गौणतासे प्रयोजन कुछ विशेषविषयक नियमको बतानेका है। फिर भी प्रथम वाक्यकी तरह इस द्वितीय वाक्यमें जिन चार विषयोंका कथन करके सम्यग्टहीको उनकी प्राप्तिका निषेध किया गया है वे भी अपने अपने पूर्वसे उत्तरोत्तर मिशेरवा रखने वाले है । भबद्धायुक सम्पष्टिका नरक तिर्यगमतिकी तरह शेष दो मतियोंमें गमन निषिद नहीं है, यह बात ऊपर कही जा चुकी है। इनमेंस देवायके विषयमें कोई विशेष वर्णनीय नहीं है। फलतः मुख्यतया मनुष्यगतिको दृष्टि में रखकर कारिकाका यह दूसरा वाक्य कहा गया है। घिसके कि द्वारा बताया गया है कि मनुष्यगति में भी ये कौन कौन सी दशाएं हैं जो कि सम्यग्दृष्टि को ग्रहण करने में उत्तरोचर अपोग्य हैं।
बोधि-दुर्लभ भावनाके प्रकरणमें प्राचार्योने मनुष्यभवको दुर्लभ पताया है। तथा मनुष्यभरमें भी उत्तम कुल १ , इन्द्रियादिकी पूर्णता, अनरूप आयुष्य आदिकी प्राप्ति उपरोखर १-इसके लिये देखो सर्वार्थ मिद्धि राजवार्तिक द्वादशानुप्रंक्षा आदि । तथा पशस्तिलक श्रा०शक्यासंसारसागर्गममं भ्रमता नितान्तं, जीवन मानवभवः समवापि देवात । सत्रापि यद्भुवनमान्यफुले प्रसूति: बसंगतिश्च तहिधिकवर्तकोयम् !!१५२। फच्छादनस्पतिमतस्युत एष जीपः, रखर्धेषु कम्मषयरोन पुनः अयाचि । चेयः परस्परविरोधिगप्रसूतावस्थाः पशुप्रतिनिभेषु कुमानुपेषु ।।१४४॥ ईत्यादि ।।