Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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चन्द्रिका दोका सर्वा] श्लोक
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या. सामान्य हैं और उत्तरोचर अल्पविषय - व्याप्य या विशेषभेदरूप हैं। जो जास्थार्य है पह पेत्रार्य अवश्य है - यह नियम है । परन्तु जो-जो क्षेत्रार्य हैं वे सभी जात्यार्थ हैं, यह नियम नहीं है। यही बात आगे भी समझनी चाहिये । फलतः जो चारित्राय हैं वे क्षेत्र अति और कर्मकी अपेक्षा आर्य अवश्य हैं। जो क्षेत्र जाति और कर्मकी अपेक्षा श्रार्य हैं वे सभी atest अपेक्षा भी आर्य हो यह नियम नहीं है । अस्तु इस क्रमके अनुसार दीक्षा are करनेके लिये सुदेश कुल और जातिका उस व्यक्ति में पाया जाना आवश्यक है। आगमका नियम भी ऐसा ही हैं कि जो कि देश कुल जातिसे शुद्ध हैं और प्रशस्तांग है वही दीक्षा धारण करनेका अधिकारी हैं ।
ऊपर यह कहा जा चुका है कि प्रकृत कारिकामें कथित तीनों ही परम स्थान सम्यग्दृहि और मिथ्यादृष्टि दोनोंको ही प्राप्त हुआ करते हैं फिर भी सम्यग्दृष्टिको प्राप्त इन स्थानोंमें विशेषता रहा करती है। प्रथम तो यह कि जो सम्यग्दृष्टि है वह नियमसे महाबुल में जन्म धारव किया करता है जबकि मिथ्यादृष्टि के लिये नियम नहीं हैं। वह असन्कुलोंमें भी उत्पन्न हो सकता है। दूसरी बात यह है कि सम्यक्त्वसहित जीवके ये तीनों ही परमस्थान मिध्यादृष्टि की अपेक्षा अनिशायी रहा करते हैं। कारण यह कि जिस पुण्य कर्मके उदयसे थे परमस्थान जीवको प्राप्त हुआ करते हैं उनके बन्धकी कारणभूत विशुद्धि जी सम्यग्दर्शनके साहचर्यमं हुआ करती हैं वह अन्यत्र नहीं पाई जाती और न संभव ही है ।
सम्यग्दृष्टिका जच्य परमनिर्वाणको सिद्ध करना है । और वह तबतक सिद्ध नहीं हो सकती जबतक कि प्रतिपक्षी कर्मों की मूल निर्जरा नहीं हो जाती । इस निर्जराका कारण तप और तपका आधार आहेत दीक्षा है जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है । यह निर्वाeater सज्जाति एवं सद्गृहीकी ही सफल हो सकती हैं । अन्यकी नहीं। यह भी सुनिश्चित है। यही कारण है कि आचार्य इस कारिकामें सम्यग्दर्शनकी अन्तिम सफलता के लिये प्रथम स्थानीय एवं आवश्यक विषय समझकर इन तीन परम स्थानोंका सम्यग्दर्शन के फलरूप में निर्देश करना प्रयोजनीभूत समझते हैं। जो कि माहाकुला महार्था और मानवतिलका शब्दोंके द्वारा क्रमसे सूचित किये गए हैं
शब्दोंका सामान्य विशेष अर्थ -
ओजस् --- यह शब्द उब्ज (तुदादि) धातुसे अस् प्रत्यय और ग्रका लोप और गुण हो कर बनता है। कोषके अनुसार इसके अनक अर्थ हुआ करते हैं। श्रीप्रभाचन्द्र देवने अपनी
१-तथा-- ब्राह्मणे! तत्रिये वैश्ये सुदेशकुलञ्चातिजे । अर्हतः स्थाप्यते लिंगन निन्द्यबालकादिषु ॥ तिला सा देया जैनी मुद्रा बुधार्चिता । रत्नमाला सतां योग्या भरडले न विधीयते ॥ २- पुण्यं पि जो समीहृदि संसारो तेण ईहियो होदि । दूरे तस्य विसोही बिसोहिमूलाणि पुराणि ॥
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