Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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चन्द्रिका टीका छत्तीया श्लोक
२ कि प्रतिपनी अयशस्कीर्सि नामकर्म है। जहाँपर कि यनस् और अयशस शब्दोंका अर्थ क्रमसे पास्प-प्रशस्त गुमा एवं कार्य और अयशस्य--अप्रशस्त गुण एवं कार्य हुआ करता है।
और कीर्तिका अर्थ ल्यापन-कीर्तन हुआ करता है। यशस्कीर्तनके विरोधी अयशस्कोतिनाम फर्गक उदयकी इस अननी भी सम्पत्वपूत व्यक्तिकै ब्युच्छित्ति१ मानी गई है जो कि मिथ्यादृष्टिकी अपेक्षा उसकी विशिष्ट यशस्मनाका भूधक।
वृद्धि--बहने अर्थकी पम् थातुसे क्तिन् प्रत्यय होकर यह शब्द बना है। अतएव सामान्यतया इसका अर्थ बढवारी होता है। कोषके अनुसार इसके समृद्धि, अभ्युदय, समधि समूह, ज्याज आदि अनेक अर्थ हुआ करते हैं । परन्तु यहांपर गुणों की अथवा छुटुम्बकी इस तरह दोनोंकी ही बढती अर्थ करना उपयुक्त है । क्योंकि यहां पर मिथ्यादृष्टिकी अपेक्षा सम्पदृष्टिके गुण अथवा कौडम्बिक सुख शान्ति संसोप आदि सभी विषयोंकी विशेषता बताना अभीष्ट है। पुत्र पौत्र आदि संततिकी उत्पतिको भी वृद्धि शब्दसे ही कहा जाता है अत एव यहांपर या सो भोजस्विता, तेजस्विता, विधा--कला गुणों श्रादिकी प्राप्ति या अभिज्ञता, पराक्रमशामिना, सद्गुणोंका प्रख्यापन इन गुणोंकी अथवा इस तरहके गुणोंमें पृद्धि ऐसा अर्थ किया जा सकता है, पद्वा इन गुणों के साथ साथ कौडम्पिक वृद्धि-कलत्र पुत्र पुधी पौत्र दौहित्र आदिका नाम यह अर्थ करना चाहिए । संस्कृत टीकाकारने अन्तिम अर्थ ही ग्रहण किया है। इस पक्षमें 'सनाथ' शब्द के पूर्वमें जिसने शब्दोंका प्रयोग इस वाक्यमें किया है उन सपका इतरेतर द्वन्द्व समास करना चाहिये।
विजय--पह शब्द विपूर्वक "जि" थातुसे बनता है। इसका अर्थ स्पष्ट है । किसी मी कला, गुग, शक्ति, पुण्यपल, या वैभव श्रादिके द्वारा अपनी उत्कृष्टता प्रमाणित कर देना विजय है। किन्तु जहांपर किसी भी साधनके द्वारा दूसरेका अभिमवपूर्वक अपना उत्कर्ष, महत्य, स्वामित्व स्थापित किया जाता है वहींपर प्रायः इस शब्दका प्रयोग हुआ करता है।
विभव-यह शन्द 'वि' उपसगंपूर्वक भू धातुसे अच् प्रत्यय होकर बनता है। यहां पर इसका अर्थ धनधान्य आदि सम्पत्ति है । यद्यपि इसका अर्थ अईसरमेष्ठी, तीर्थकर भगवान, अथवा संसारातीत मोर अवस्था भी होता है ।।
सनाय--नाथ शम्द याचनार्थक नाथ् थातुसे बनता है। जो याचना करने योग्य है, बिससे याचना की जाय उसको नाथ कहते है । मढलब यह कि जो उपजीव्य है, शरण्य है, वही नाथ है। भोज आदि गुणोंके लिये जो अपनी इस योग्यतासे युक्त है वह सनाथ है। अर्थात् दर्शनपर व्यक्तिके भोज प्रादि गुण समाग्दर्शन गुणके कारण अपनेको सनाथ समझसे
१-चतुर्थगुण स्थानमें १७ कोको उदय म्युछिति होती है। अतएव यद्यपि अयशस्कीका अनुदर पाच गुणस्थानसे ही होता है फिर भी सनकी युश्चिशिजिस विशुनपर अवलम्बित सभ्यम्पर्शन पर ही निर्भर है, यही बात यह दिखाई गई है।