Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj

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Page 348
________________ Aanandaar पद्रिका टीका तोमर्चा मोर का समर्थन करना, कन्या प्रादिमें दूपण लगाना, देवद्रष्य ग्रहण करना, निस्वध प्रकरणोंका स्वाग, परके वीर्य का अपहरण, धर्ममें विच्छेद, कुशल आचार तपस्वी गुरु चैत्यको पूजाम वापात, दीवित अथवा दयनीय दीन अमात्र यहा ससात्रों को प्राश्रय आदिके दानका प्रविषेय, दूसरे व्यक्तियोंको रोककर रखना बांधना पीटना उसके गुसांगका छेदन, नाक कान मोठ भादिका कतरना, प्राणियध करना, इत्यादि प्रमादपूर्वक और दुर्भावनास किये गये सभी विघ्न उपस्थित करनेवाले कार्य अन्तरायके पन्धमें कारण हैं। इसी तरह मसाता वेदनीय * पन्धमें जो कारण हैं उनको भी दरिद्रताका अन्तरंग कारण समझना चाहिय। यहाँ पर यह ध्यान रखना योग्य है कि यद्यपि उक्त ४१ कोंके सिवाय अन्य फाँका सामान्यतया बन्ध सम्यग्दृष्टि जीवके भी हुआ करता है और उनके पथके योग्य परिणाम नया प्रवृत्तियों भी हुआ ही करती हैं किन्तु उनमें मिथ्याष्टिके समान तीव्रता न रहनेके कारण उसके मिथ्याष्टिके समान तीत्र अनुभाग आदिका बन्थ भी नहीं हुआ करता । कारण यह है कि सम्यग्दृष्टि जीवके संसारकी सीमा प्रायः समाप्त होने पर आ गई है अतएव उसके कर्मबन्धनकी संततिके कारण और स्वरूपमें भी स्वभावतः इस तरहका अपूर्व परिवर्तन हो जाया करता है जिसके कि फलस्वरूप उसके इन कर्मोकी स्थिति एवं अनुभागमें यथायोग्य सातिशय अम्पता मा जाया करती हैं। अस्तु । यहाँपर यह सब वर्णन करनेका तात्पर्य इतना ही है कि यह मालुम हो सके कि सम्यग्दर्शनके प्रकट होते ही संसारके कारण कितने प्रमाणमें निर्मूल से जाया करते हैं और उसका संसार-चातुर्गतिक भ्रमण किसतरह सीमित हो जाया करता है। प्रकत कारिकामें अतिशयोक्ति अलंकार माना जा सकता है परन्तु ऊपर के कथनसे यह भी मालुम हो सकेगा कि यह कथन केवल प्रालंकारिक ही नहीं है। वह सैद्धान्तिक है। और इसीलिये तस्वव्यवस्थाके प्राथारपर स्थित है । अतएव सर्वथा प्रमाणभूत है। प्रकृत कारिकाके दोनो वाक्योंमें जिस अन्वाचयका उपर उन्लेख किया गया है उसके माथार पर कुछ और भी विशेषताएं है जो कि विचार करने पर समभाम श्रा सकती है। प्रथम या कि यहां पर जिन-जिन विषयों का निषेध किया गया है उनमें पूर्व-पूर्व सामान्य और उत्तरो. तर विशेष है। सबसे प्रथम निषेध्य नारक भाव है जिसके कि कारणभूत कर्मोंकी बन्धन्मुच्छिति प्रथम गुणस्थानमें हुमा करती है। साथ ही जिस नपुसकताका निषेध किया गया है नारक मावके साथ केवल उसका ही नियत सम्बन्ध है। क्योंकि नरक गतिमें स्त्रीवेद और पुवेदन रहकर केवल पण्ड भाव ही पाया जाता है। नारकस्य के बाद निर्यन्त्वका निषेध किया गया है। जिसके कि योग्य कर्मोंकी बन्दव्युच्छिसि दूसरे सासादन गुणस्थानमें पताई गई है। यहां यह बात भी ध्यानमें रहनी चाहिये कि था गुणस्थान सम्पकत्वलामके अनन्धर ही हुआ करता है। और प्रथम गुणस्थानमें जिन कर्मों की बन्थम्युच्छिति बताई गई है उसका फल भी वास्तव में मिप्यास्व गुरुस्थाममें न होकर द्वितीयादि गुपस्थानों में ही हुमा करता है। इससे स्पष्ट होण

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