Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj

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Page 337
________________ ३२. करवकावार नामक नोकगायक उदयसे एवं तदनुकूल यांगोपांग नामकर्मक उदयसे तथावि चिन्हयुक्त शरीरको धारण करनेवाला हैं उस जीवको स्त्री समझना चाहिये । इस अवस्थाके योग्य कर्मका बन्थ दूसरे सासादन गुणस्थानसे आगे नहीं हुआ करता । दुष्कुल विक्रेताल्पायुर्दरिद्रतां - दुष्कुल आदि शब्दोंका द्वन्द्व समास करके भाव अर्थ में ता प्रत्यय करनेपर द्वितीया एकवचनमें यह शब्द बनता है। क्योंकि उपयुक्त नारकादि शब्दको सरह यह भी 'ब्रजन्ति' क्रियाका कर्मपद हैं। दुध्कुल शब्दका अर्थ होता है - दूषित कुल । यह गोत्रकर्म विशेषके उदयसे प्राप्त हुआ करता है। संतान क्रम चले आये जीवके श्राचरणको गोत्र कहते हैं। इसके दो भेद है-एक उस दूसरा नीच | जो लोकपूजित या लोगों के द्वारा सम्मानित है उसको कहते हैं उच्चकुल और जो लोग है जिसका आचरण उत्तम पुरुषोंके द्वारा सम्मानित न हो उसको कहते हैं नीचकुल | कुल वंश अन्वय ये सप शब्द पर्यायवाचक है। जिस वंश में चलाया आचरण किसी भी तरह दूषित या अप्रग्रस्त हो अथवा हो गया हो उसको दुम्कुल कहते हैं। जिन कुलों में सज्जातित्व के विरुद्ध आचरण प्रवर्तमान हो उन सभी कुलों को दुष्कुल समझना चाहिये । ध्यान में रहना चाहिये कि इसतरहके आचरणसे यहां अभिप्राय किसी व्यक्तिके तात्कालिक एवं कादाचित्क आचरण से नहीं किन्तु कुल क्रमागत श्रावरणसे हैं। साथ ही आचरण से प्रयोजन उसके शरीरकी उत्पत्ति सम्बन्धको लेकर मातृपक्ष तथा पितृपक्षकी शुद्धि है। जो मातृपक्ष अथवा पितृपक्ष असदाचारके कारण परम्परासे दूषित हैं वह दुष्कुल है । यद्यपि यह अर्थ व्यगतिकी अपेक्षा ही घटित होता हैं फिर भी इस शब्द से देवदुर्गतिका भी अर्थ ग्रहण किया मनुजा सकता है। क्योंकि यद्यपि सामान्यतया सभी देव उच्चकुली हैं क्योंकि सभी उच्चगोत्र कर्मका ही उदय पायाजाता है । फिर भी सम्यक्त्व सहित जीव भरनवासी व्यस्तर और ज्योतिषियों में उत्पन्न नहीं हुआ करता । फलतः देवोंके इन तीन निकायों को तभ्यतः देव दुर्गति शब्द कहा जा सकता है। अत एव देवगतिर्म भी जो अप्रशस्त हैं उनका भी दुष्कुल शब्दसे ग्रहण किया जा सकता है। कारण यह कि यहांपर सम्यक्त्वसहित जीव किन-किन अवस्थाओं को प्राप्त नहीं होता यह बात पाचार्य बता रहे हैं। जिससे श्रोताको यह बात मालुम हो सके कि सम्यग्दर्शनके होते ही इस जीवका संचार किस सीमातक समाप्त होजाता है और जबतक बह सम्यक्त्वसहित हैं, संसार में रहते हुए भी किन किन अवस्थाओं को प्राप्त नहीं किया करता और फलतः किन-किन अवस्थाओं को प्राप्त किया करता है। १ यदि सं दोसेण यदी चाददि परें । वे दोषेण द्वादमसाला जाता सा वष्णिया इत्यां ॥ २७४ ॥ जी० का० । सम्यक्त्वं हि "अष्टविधेषु व्यन्तरेषु इशविधेषु भवनवासिषु पचविधेषु तिष्ठेषु" संभूतितः ॥ यश० वा० ६ ० २०१ "न भवति

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