Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj

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Page 339
________________ रत्नकाण्डाकाचार गति उत्तमकुलमें उत्पन्न होकर भी काणा अन्या बहरा बूचा गूगा नक्टा टोटा लूला लंगडा आदि नहीं हुआ करता। अल्पायु-लध्यपर्याप्तक मन यकी माथु सामान्यतया भन्तमुहर्त है। सम्यक्त्वसहित जीव उसको प्राप्त नहीं हुआ करता । इतना ही नहीं, अपितु पर्याप्त होकर भी दो चार अन्तमुहर्त प्रमाण ही जीवित रहे अथवा गमवाव गर्भपात श्रादिके द्वारा यद्वा सनन्य एवं शैराब जैसी छोटी उम्रमें ही मरणको प्राप्त होजाय, ऐसा भी नहीं हुआ करता । सम्यग्दृष्टि जीवके जानेवाली शुभ दोनों आयुओंके स्थितिबंधकी दृष्टिसे यदि विचार किया जाय तो देवगति सम्बन्धी श्रायुमै आभियोग्योंके समान हीन स्थिति नहीं हुआ करती। शुभ आयनों में देव तथा मनुष्य यायुका बंध करनेवाले मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि मनुष्य एवं देवों में जो सम्यक्त्वमहित है, यह मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा आयुकी अधिक स्थितिका ही बंध किया करता हैं । अरव इस शब्दका ऐश भी अर्थ किया जा सकता है कि.-सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यारष्टि की अपेक्षा अल्प आयुको प्राप्त नहीं हुआ करता। दरिद्रना----इस शब्दका लोकप्रसिद्ध अर्थ अर्थाभाव-पैसे की कमी होता है। किन्तु श्रीप्रभाचंबदेवन इसका अर्थ दारिद्रयोपेत कुल में उत्पत्ति रखाया है। अतएव दरिद्रताका यहांपर व्यक्तिगत निर्धनता अर्थ न लेकर कुल क्रमागत निर्थनता अर्थ लेना ही अधिक उचित एवं संगत है। चातुरीएव्यवस्था अनुसार आयें पुरुपोंके लिये जो गंशानुक्रमसे पालन करने योग्य वार्तागर्म बताया गया है वह प्रशस्त है। इस तरहसे अपने अंशानुगत एवं प्रशस्त वार्ताकर्म करनेवाला व्यक्ति आर्थिक-साम्पत्तिक स्थितिमें अप्रशस्त कर्म द्वारा अधिक धनवान बन जाने बालोंकी अपेक्षा अल्प अल्पतर या अल्पतम होते हुए भी दरिद्र नहीं है। क्योंकि वह दारिद्रयोघेत कुल में उन्पन्न नहीं हुआ है। इसके विरुद्ध बंशानुगत प्रशस्तकर्मा धनहीन व्यक्तिकी अपेषा जो कोई अन्यानुगत अप्रशस्तव के द्वारा अधिकाधिक धनवान हो गया है तो वह नैसा बन जानेपर भी दरिद्र है। कारण यह कि यहां दरिद्रतासे प्रयोजन केवल धनके न होनेसे ही नहीं है। किन्तु धनसंचयके गंशानुगत एक भागमविहित प्रशस्त साधनोंके विरुद्ध हिंसाकर्न देन्यत्ति-कुलक्रमागत सेवा आदि अप्रशस्त एनिम्न कोटिके सायनाके द्वारा धनसंग्रह करना मुख्यतया गुणों की अपेक्षा दरिद्रताका परिचायक है। नंशपरम्परासे हिंसाकर्म-खटीक चाण्डालादिका बन्धा करनेवाले, मांस चर्म हट्टी मादिका विक्रय करनेवाले, मत्स्पोत्पादन सरीक्षा निऋण मात्रय कर्म करनेवाले, दस्युकर्म-लुटेरै तस्कर प्रादिका काम करनेवाले, वेश्यावृति या भंडकर्म करनेवाले आदि अनेक मनुष्य निरतिशय एवं पापानुगंधी पुण्यके उदयसे बड़े-बड़े श्रीमन्न भी देखे जाते हैं। एतायता यह कर्म प्रशस्त नहीं माना जा सकता। इस तरह करें ५-मा. धा० १-११ में न्यायपासचनः एतदर्थः "स्वामिद्रोड मित्रद्रोह विश्वमितचनचार्या दिगर्थोिपार्जनपरिहारेणार्थोपार्जनोपायभूतः म्वरूपवर्णानुरूपः सदाचारः न्यायः। २-पहापर यह एक सुभाषित स्मरणीय ई-निरक्षरे धीत्य महानिन्यं विद्यानषमा विदुषा न हेया। रस्तावतंसाः कुलदाः समीक्ष्य किमार्याः कुलदा अन्ति।

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