Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
View full book text
________________
........................दिका टीका तेतीला शोक
श्रीविद्यानन्दी भाचार्यने जो इस विषयमें लिखा है तथा "निशन्यो व्रती" की जिस ढंगसे व्याख्या और परिभाषा की है उससे भी यही अभिप्राय निकलता है कि निःशम्यः का अर्थ असंयत सम्यारष्टि करना ही उचित एवं संगन है। इस तरह विचार करने पर मालुम होता है और पुक्ति तथा अनुमान से भी भले प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि कोई भी जीव पाहे किसी भी तरहके अणु वा महान् प्रतोंसे भूषित क्यों न हो अब त अन्तरंगमें निःशन्य-निमोह सम्यग्दृष्टि नहीं है तब तक यह मोक्षमार्गमें परमार्थतः स्थित नहीं है।
ध्यान रहे, कदाचित् कोई यह समझे कि इस कथनसे चारित्रका विरोध होता है, अथवा मोचमार्गमें सम्पग्दर्शन के ही सब कुछ मान लेने पर चारित्रकी आवश्यकता ही नहीं रह जाती है । सो यह बात नहीं है । यह कारिका चारित्रका विरोध नहीं करती प्रत्युत उसको दृद्ध बनाती है-मोचमार्गमें उसको वास्तवमें स्थिर करती है। ऊपर भी इस कारिकामा प्रयोजन मोक्षमार्ग में स्थिति बताया जा चुका है। क्योंकि सम्यक्त्व सहित अथवा सत्पूर्वक चारित्र क्रमबद्ध है और समूल है। इसके विरुद्ध सम्यग्दर्शन के बिना जो व्रत चारित्र होते हैं वे मोक्षमार्ग में निश्चित रूपसे परिगणित नहीं हैं। __ मोह कर्म भी दो भागों में विभक्त है-दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय । इनसे दर्शन मोह संसार पर्यायका जनक है अथया संसाररूप है। और चात्रि मोह मोह मार्गका विरोधी है-पाथक है। क्यांकि सम्यक्त्व के रहने पर भी जब तक चारित्र मोहका उदय है सत्र तक मोखमार्गकी सिद्धि नहीं होती। किन्तु दर्शन मोहके हटते ही जिस तरह अनन्त संसार समाप्त होकर सीमित हो जाता है-अधिकसे अधिक अर्थ पुद्गल परावर्तन प्रभाख मात्रही उसका काल रह जाता है । यह बात सुनिश्चित है। उसी तरह दर्शन माहके दूर हुए विना चारित्र मोहके मंद मंदतर मंदसम होने पर प्रचारित्र के होते हुए भी जिसके कि फलम्बरूप नवपतक पहुँचा जा सकता है निश्चित रूपस संसार पयाय सीमित नहीं हुआ करती और न मानी ही गई है। यह बात भी सुनिश्चित है। यही कारण है कि सम्यग्दर्शन के प्रकट होने पर जिस तरह जीवको नोसंसारी या जिन प्रादि शब्दोंसे कहा जाता है उस सरह मिथ्याष्टि व्रती को नहीं कहा जाता और इसी लिये जो दर्शन मोहसे रहित है वह संसार से भी रहित है। यह मागे के लिये चारित्र मोहके भी विरुद्ध प्रयत्नशील होनेके कारण मोषमार्गमें स्थित जिन भी कहा जा सकता है। अतएव यह भी कहा जा सकता है कि जो संसार पर्याय का विनाश है वही मोचमार्गका प्रारम्भ है । फलतः जो दर्शन मोहसे रहित है वह अवश्य ही मोक्षमागे में स्थित है फिर चाहे वह गृही हो अथवा मुनि हो । यदि दर्शन मोह से युक्त है तो निश्चित है कि वह मोबमार्गमे स्थित नहीं है फिर चाहे वह साधु हो या गृहस्थ । यद्यपि पा पास भी निश्चित एवं सुसिद्ध कि सम्यग्दर्शन के हो जाने पर जीवकी मोषमार्ग में परति पीर कदाचित् स्थिति हो सकती है। परन्तु उसके मोषमाण की प्रति पर्व छलोदर