Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
View full book text
________________
रत्नकरएशाषकाचार
जाया करता है । साथ ही यह बात भी ध्यानमें रहनी चाहिये कि सम्यक्त्वकी विरोधिनी सात प्रकृतियां है। इनमें से चार अनन्तानुबन्धी करायोको यद्यपि चारित्र मोहनीय कर्म के भेदों में गिनाया है फिर भी इनमें सम्यक्त्व और चारित्र दोनों के विरुद्ध स्वभाष पाये जाने के कारण इनका दर्शन मोहनीय नामसे भी पागम में उल्लेख किया गया है । फलतः जिस समय वह जीव मिथ्यात्व या सम्पग्मिध्याव अथवा अनन्तानुबन्धी रागदपसे प्रेरित होकर तथा सधोग्य उचित सायनोंमे सम्पन्न होकर भविष्यके विषयमें-किसी भी सांसारिक सामग्रीकी प्राप्तिके विषयमें यदि संझन्प करता है तो वहां निदान शल्य हो जाती है।
प्रश्न-राग द्वेष और मोइ तीनों ही से मापनं निदानका होना बताया सो किस तरह बन सकना है ? क्योंकि आगामी किसी विषय की प्राप्तिके संकल्पको निदान कहते हैं। इस तरहका संकल्प राग अथवा मोहक द्वारा की गम है परन्तु गह बारा किस तरह हो सकता है? । उत्तर-~-जिस तरह रागा निमित्तसे अभीष्ट विषयको प्राप्त करनेका कम्प हुमा करता
उमी तरह ईप निमिचौ अनिष्ट विषयको नष्ट करनेका-अप्रिय विरोधी शत्र प्राविक व करने मादिका भी संकल्प हुआ करता है । इसमें कोई विरोध नहीं है । प्रथमानुयोगमें इस के समर्थक अनेकों दृष्टांत पाये जाते हैं । उदाहरणार्थ-श्री आदिनाथ भगवान्ने जयवर्माकी पूर्व पर्याय विघाथरकी ऋद्धिको देखकर रागपूर्वक उसतरहकी ऋद्धि प्राप्त करनेका निदान करके महाबलकी पर्याय प्राप्त की यी । किन्तु श्रेणिक महाराज के पुत्र कुणिकने सुषेणकी पूर्व पर्याय में द्वप पूर्वक-राजा सुमित्रके प्रति जो कि श्रेखिकका जीव था, कोथ करके निदान किया था जिससे वह व्यंतर होकर श्रेणिककी मृत्युका निमिच पनने वाला चेलना का पुत्र अधिक दुमा। पहले प्रतिनारायण अश्यग्रीव ने विशाखनन्दी की पूर्व पर्यायमें विद्याधरकी वृद्धि ग्राम करनेका रागपूर्वक निदान किश था । जब कि उसके विरोधी प्रथम त्रिपृष्ट नारायणके जीवने अपनी विश्वनन्दीकी पर्यायमें विरोधीका वध करनेकेलिये द्वोपूर्वक निदान किया था। इनकी कथाएं प्रथमानुयोगमें१ प्रसिद्ध हैं । इसी तरह और भी भनेक कथाएं हैं जिनसे यह बात सिद्ध होती है कि निदान नामक शन्य रागपूर्वक ही नहीं अपितु देषपूर्वक भी हुआ करती। मोर साथ ही यह बात भी सिद्ध होती है कि या तो या निदान शन्य मिथ्यादि जीवके ही हुमा करती है । अथवा उसके होने पर जीव सम्यक्त्वसे व्युत हो जाया करता है। फलतः पुक्ति अनुभव और आगमके आधार पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि निदान नामक शल्य अथवा तीन प्रकारकी शव्यों में से किसी भी शज्यके रहते हुए जीव चाहे यह प्रतसहित हो अथवा अनरहित, फिन्तु निर्मोह-निशन्य-सम्यग्दृष्टी नहीं रहा करता और न मुक्ति ही वा सकता है।
-णिक चरित्र, महावार परित्र (महाकवि माग)