Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj

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Page 324
________________ २०७ भन्द्रिका टोका चौंतीमत्रा श्लोक यथार्थ मार्गसे पंचित रखता है, इस विषयके प्रतिपादन करनेवाले प्राचार्यो-श्रद्धेय गुरुओं मया उनके वचनों – सम्यग्दर्शनके विषयभूत आगमोंके प्रति अश्रद्धा प्रकट करता है । फलतः यह अपने अज्ञान और मिथ्यात्वका पोषण करता है। यही कारण है कि आचार्य भगवान दोनों ही दृष्टिगोंको सामने रखकर धस्तुभृत सम्यग्दर्शनके फलका निर्देश कर रहे हैं। फलतः इस कारिकाके द्वारा वे बताना चाहते हैं कि उपयुक्त दोनों ही कपन परस्पर विरुद्ध नहीं है । अबतक जो कुछ वर्णन किया गया है वह आत्माके विकास-उममें समीचीनताकी संभूति आदिको लक्ष्य में रखकर और उसमें भी खामकर ज्ञानचारिक ही सम्बन्थको लेकर किया गया है । किन्तु यहाँपर प्राचार्य ऐहिक फलका भी समावेश करके इस कारिकाके द्वारा सम्यग्दर्शनके फलको व्यापक पता रहे हैं। इस तरहसे यह कारिका गत वर्णनका समारोप करती है और आगत विषयक पर्शन की सूचना देती है। क्योंकि अंधतक जो वर्णन किया गया है वह वस्तुतः सम्यग्दर्शनको स्वरूप योग्यता- उसका लक्षण, विषय, अलोपाक, सहचारी गुणों व परिणामोपर पहनेवाले प्रभाव मादिको दिखाता है, साथ ही अनादिकालसे चले आये संसारकै मूलभूत विपरिणामोंका देश स्पागकी-अपने उपभोग्य क्षेत्र प्रात्माको छोडकर चले जानेके लिये दी मई न केवल प्राका ही, किन्तु दी गई भाज्ञाके पालनका प्रारम्भ होचेका भी उन्लेख करता है। जिस प्रकार कोई विजिगीषु अपने क्षेत्रपर अधिकार सभाकर बैठे हुए शत्रु पर केवल विजय प्राप्त करके ही नहीं, अपितु उसको भगाकर और उसकी जगह अपनी आज्ञाका प्रजामें पालन कराकर ही दम लेता है; उसी प्रकार प्रकुनमें समझना चाहिये। इम कारिकामे आगे सम्यग्दर्शनके आमुत्रिक और ऐहिक फल एवं अभ्युदयोंके लामका वर्णन किया जायगा। किन्तु उसके स्वरूपका वर्णन यहां समाप्त हो जाता है। अतएव प्राचार्य ने इस संबंध में जो कुछ प्रारम्भमें कहा था उसीको वे प्रकारान्तरसे इस कान्किामें दुहरा रहे हैं। साथ ही सम्यग्दर्शनके स्वरूपका जो असाधारण महत्त्व है उसका सम्पूर्ण निचोड मी दिखा भामार्यनीने जिस धर्मके वर्णन करनेकी प्रतिज्ञा की थी उसका सामान्य स्वरूप उसके पादकी ही कारिका नं० ३ में बताया था कि सम्बग्दर्शनादिक धर्म है। अर्थात् वे कर्मों के और उनके फलस्वरूप दुःखरूप भावोंके विधामक तथा निज उपम सुखरूप अयस्थाक साधक हैं। इसके साथही यह भी बताया था कि इसके प्रत्यनीक भाव ही संसारके मार्ग हैं। अब प्राचार्य उसी धर्मके प्रधान अंग सम्यग्दर्शनके स्वर एका घ्याख्यान करके अंतमें इस कारिकाके पूर्वार्धमें उक्त धर्म की असाधारण महिमा दिखाकर उसकी सर्वोपरि उपादेयताको स्पष्ट कर रहे है। और -देखा कारिका नं०२

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