Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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चन्द्रिका टोका पैंतीसादा श्लोक उसका फज्ञ अवश्य हो । अन्यथा पाश्रत्य प्रकट करने या खण्डन करने आदिके अभिप्रायल सम्यस्वका प्रतिष नन करनेवाले आईत शास्त्रोंका अध्ययन करके ज्ञान प्राप्त करनेवाले मिध्यावष्टियों कशानको भी जिपसे कि वास्तवमें अज्ञानकी वृित्ति नहीं हुई है, सम्पग्ज्ञान अथवा प्रमाण पानना पडेगा । अतएव सम्यग्ज्ञान बही है और दही सम्यग्ज्ञान प्रमाण है जिसके कि होनेपर ज्ञानमेंसे प्रताधिक मान्यता अथवा मोहजनित मिथ्या श्रद्धा या रुचि निकल जाती है। और कम से कम इस अमानकी अन्तरंगसे निवृत्ति के हो जाने पर ही वह ज्ञान सम्यक् अथवा प्रमाण माना जा सकता है। इसी प्रकार सम्यग्दर्शनके विषयमें समझना चाहिये । यह अत्यन्त उचिन युक्ति युक्त और यावश्यक है कि कोई भी क्रिया जब हो तब उसका बस भी अवश्य हो। फल दो भागोंमें विभक्त हो सकते हैं । अन्तरंग और वाय, अथवा प्रत्यक्ष और परोक्ष, यद्वास और पर। यहांपर इन्हीं फलों का वर्णन करनेकी दृष्टिसे प्राचार्य सबसे प्रथम अत्यन्त निकटवर्ती भन्तरङ्ग प्रस्पक्ष स्व-पर फलका उल्लेख करके इस कारिका द्वारा बताना चाहते हैं कि जीवमें यदि वह शुद्ध है तो, और नहीं है तो अर्थात् अबद्धायुष्क या बद्धायुष्क दोनों ही अवस्थाओंमें सम्यग्दर्शनभद्धानरूप क्रियाके होते ही स्व-उस जीवमें और पर--उसमे बंधनेवाले क्रमों में इस प्रकारका विवक्षित परिवर्तन हो जाता है। क्योंकि सम्यग्दर्शन प्रकृत में उस प्रतिशात थर्मका प्रधानभूत एख्य और प्रथम भाग है, जो कि संसारके दुःखोंसे हटाकर जीवको उत्तम सुखरूपमें परिणत करनेवालों में से एक है । फलतः यह प्रावश्यक है कि सम्यग्दर्शनरूप धर्मके श्रास्मामें प्रकट होते ही वह जीव यथासंभव दुःखरूप अवस्थाओंसे मुक्त हो और उनके कारणोंसे भी रहित होकर मैःश्रेयस मुखरूप अवस्थाकै मार्गमें अग्रसर हो । अतएव सम्यग्दर्शनके होते ही जीव इन दोनों ही विषयों में कमसे कम कितनी सफलताको निश्चित रूपसे प्राप्त कर लेता है, यह बताना ही इस कारिकाका प्रयोजन है। क्योंकि इस कारिकाके अर्थको हृदयंगम करनेपर श्रद्धावान मास्तिक संविग्न मुमुक्षु निकट भव्यको ऐसा मालुम होने लगता है कि मेरा यह भनादि दुःखपूर्ण संसार अब समाप्तप्राय है-और जो कुछ शक है उसको भी निष्प्राणित कर देना मेरे बायें हारका खेत है। तथा अनन्त अव्यावाध मेरा सुख मेरे हाथमें है। इसी दृढ श्रद्धाके कारण उसका परम पुरुषार्थ, परम पुरुषार्थ के विरोधी कोका क्षय करने के लिये उद्युक्त होता है। और उसके मसम साहसका वह ऊर्ध्वमुखी सतत प्रयोग चालू रहता है, जो कि शुद्ध सिद्धास्माको तनुपावषालयकै अन्तमें शीघ्र ही उपस्थित करने में समर्थ होता है, जिसका कि भगवान् उमास्वामीने प्रपोंगर शब्दके द्वारा हेतुरूपमें उन्लेख किया है।
परकी कारिकामें सम्पपत्र और मिथ्यावकी कपसे अनुपम श्रेयोल्पता और दुसरूपता का उन्क्षेस किया है जिससे उनकी मोक्षरूपता तथा संसारपोजता तो म्पष्ट शेती ही है, साथ ही यह भी स्पष्ट हो जाता है कि सम्यग्दर्शनके प्रादुर्भूत होते ही । पूर्वप्रयागादसमस्या बन्धनमायागांतपरिणामाच । स० सू. १०-६॥