Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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रत्नकरण्डेश्रावकाचार अर्थ-शरीरधारी प्राणियोंको तीन लोक और तीन कालमें सम्यक्त्व सरीखा इसरा कोई भी कल्याण या कन्याणका कारक नहीं और मिथ्यात्व सरीखा कोई दूसरा अहित भगवा उसका साथन नहीं।
प्रयोजन-ऊपर कारिका ने० ३२ की उत्थानिकामें जिन तीन विषयों का उल्लेख किया गया था उनमेंस कारिका ३२ में प्रथम विषयको और ऊपरकी कारिका नं. ३३ में दूसरे विषयको दृष्टिमें रखकर वर्णन किये जानेपर क्रमानुसार तीसरा विषय उपस्थित होता है। फलता इस पातकी जिज्ञासा हो सकती है कि यह सम्यग्दर्शन मोधका ही कारण है। अथवा संसारमें भी किसी या किन्हीं विपयोंका कारण हो सकता है ? क्योंकि आगममें इस सम्बन्ध में दो तरह कं वर्णन मिलते हैं । एक तो यह कि सम्यग्दर्शन अथवा रस्त्रय मोक्षका ही कारण है । दूसरी जगह अनेक सांसारिक पदों आदिके लामका भी उसकी हेतु' बताया गया है। अतएव यह जिज्ञासा हो सकती है कि वास्तविक बात क्या है ? सम्यन्दर्शनका सांसारिक फल भी किसी भी सीमा तक और किसी भी अपेक्षासे होता है या नहीं ? अथवा केवल भोक्षका ही कारण हैं । दोनों पक्षों में से किसी भी एक पक्षक सर्वथा मान लेनेपर दसरा पक्ष प्रयुक्त सिद्ध हो जाता है । बस ! यही कारण है कि इस कारिकाका निर्माण आवश्यक हो गया है। क्योंकि यह कारिका इस अयुक्तता अथवा एकान्तवादका परिहार करती हैं। इसके साथ ही यदि इसी विषयको दूसरे रूपमें कहा जाय तो यह भी कहा जा सकता है कि यह कारिका दोनों ही पक्षोंका अपनाभेदसं समर्थन करती है । जब कि ऐसे कोई भी दो विषय जो कि परस्परमें विरुद्ध मालुम होने हुए भी स्याद्वाद पद्धति और भिन्न-भिन्न अपनी-अपनी अपेक्षाओं के कारण तस्वतः श्रापसमें विरुद्ध न हों तो उसका स्पष्टीकरण करना साधारण श्रोताओंके भ्रम-परिहारार्थ उचित और आवश्यक भी है । फलतः यह कारिका इस बातको स्पष्ट करती है कि सम्यग्दर्शनका फल पारलौकिकसंसार और उसके कारणों की निवृत्तिपूर्वक श्रास्माके निज शुद्ध स्वभावको प्रकट करना अथवा उसका प्रकटित हो जाना तो है ही, किन्तु ऐहिक-अभ्युदय विशेष भी इसके फल है, जो कि मात्माके शुद्ध स्वभावसे भिन्न होते हुए भी उसके साहवर्ग एवं निमित्तकी अपेक्षा रखते हैं। जो पास युक्ति, अनुभव और भागमसे सिद्ध है तथा प्रसिद्ध है उस बातको प्रकट न करना, लोगोंको उस सत्याथके ज्ञानसे वंचित रखना, उनके संशय विपर्यय अनध्यवसायको बनाये रखना, फलतः हितसे या हिसके यथार्थ मार्गसे वंचित रखना, अनुचित ही नहीं, पाप है। साथ ही यदि यह बात अपने अज्ञान-मूलक गृहीत दुराग्रहवश सर्वथा मिथ्या बताई जाय तब तो मिथ्यास्य है-भयंकर पाप है । क्योंकि ऐसा करनेवाला मार्गका विरोध करता है, मुमुक्षुओंको १-रलायमिह हेतुर्निर्माणस्यैव भवति मान्यस्य । श्रास्रवत्ति यत्तु पुण्यं शुभोपयोगोऽयमपराभः
॥२२०।। पु० स० २-१० सू० अ०६ सभा २१,२४॥