Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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الفقه فيه منفصله معهميعي
Anita
रलकरत्रावानार नब तक नहीं हो सकते जब तक कि यह व्रत चारित्रसे-बाश व्रतानुष्ठानसे भी युक्त नहीं हो जाता । इसलिये ऊपर कहा गया है कि दर्शन मोह संसाररूप या उसका जनक है तब चारित्र मोह मोक्षमार्गका बाधक है।
प्रश्न-दर्शन मोहके दूर होते ही जब संसारका अभाव होगया-तो फिर चारित्र थारख करने की क्या आवश्यकता रह जाती है ? दूसरी बात यह कि यदि चारित्र की आवश्यकता है भी तो जिस तरह गृहस्थाश्रम--सवस्त्रावस्था में-या चारों ही गतियों में दर्शन मोहका उपशम भोपशम अथवा चय माना गया है उसी तरह चारित्र मोहके भी निरसन पूर्वक उस चारित्र की सिद्धि क्यों नहीं हो सकती?
उत्तर-केवल सम्यक्त्वसे ही काम नहीं चलता यद्यपि उससे संसरण सीमित हो जाता है। फिरभी जिस तरह उर्वरा भूमिमें चीज पर जानेसे ही पुष सफल और सम्पन्न नहीं हो सकता उसी प्रकार केवल सम्यक्त्तके प्रकट होजाने मात्रसे ही सम्पूर्ण कर्मों का संवर और निर्जरा नहीं हो जाती । मोवरूप-सिद्धावस्थाके लिये बंधहेत्वभाव और निर्जरा आवश्यक है। और ये दोनों ही कार्य अपने अपने कारणों के बिना सिद्ध नहीं हो सकते । यही कारण है कि सम्यग्दर्शन और सम्य ज्ञान के बाद चारित्र मोहको दूर करने के लिये शरिरतिके त्यागके साथ ही व्रत संयम तप आदि चारित्रके धारण करनेकी आवश्यकता मानी गई है । आगे चलकर स्वयं ग्रन्थकार भी इस बातका प्रतिपादन करनेवाले है। । तथा इसके पूर्व गुरुके लक्षणका वर्णन करते हुए२ पर्वार्धक तीन विशेषणोंके द्वारा अविरतिके साधनोंकी३ निवृत्ति बताकर संवरके साधन
और उत्तरार्धमें बताई गई तीन प्रवृत्तियोंके द्वारा संवर तथा मुख्यतया निर्जराके साधनोंको स्पष्ट कर दिया है। इस तरह ग्रन्थकारके ही आगे पीछके वर्शनपर दृष्टि देनेसे चारित्रकी आवश्यकता स्फुट हो जाती है।
यह समझना भी ठीक न होगा कि सम्यग्दर्शनकी तरह चारित्र भी चारों गतियोंमें या सभी मनुष्यों में पाया जा सकता है। प्रत्युत सत्यभूत तन्त्र यह है कि जिस तरह सम्यग्दर्शनको उदभृत होनेके लिये योग्य अधिकरण आवश्यक है उसी प्रकार चारित्रको भी अपने योग्य अधिकरणाकी भावश्यकता है। यहां अधिकरमासे प्रयोजन जीवकी उन पर्यायोंसे है जो कि उन उन गुयोंकी सम्भूति स्थिति वृद्धि और फलोदयके लिये संभावित पात्रतासे युक्त हैं। जिस तरह असंही श्रादि जीयोंमें तथा मनुष्यों में भी म्लेच्छ५ यद्वा पार्यो में भी जन्मसे सप्तम सप्ताहक
५-रागद्वेष निवृत्यै चरणं प्रतिपयने साधुः ।।२० २०४७॥ २-२० क० कारिका नं० १०|| ३-१० सू० अ०६ सू० ५ “इन्द्रिय-कषायाप्रतक्रियाः" आदि ।
४-चद्गदिमिच्छो सरणी पुण्णो गम्भज विसुद्ध सागाये। पदभुषसमं स गिराइदि पंचमयर लद्विपरि भम्हि ।।२।। ख० सा०