Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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रत्नकरण्डश्रावकाचार
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बालेके उह श्य पर अधिक निर्भर है। यह बात कुछ उदाहरणोंके द्वारा अच्छी तरह स्पष्ट हो
आचार्य श्रीर्मयके भीतर सभी रहनेवालों पर शासन करते हैं। ऐसी अवस्था में उनकी प्रसङ्गानुसार शिष्यों को दण्ड प्रायश्चित्त भी देना पड़ता है, कदाचित् कटु शब्द भी बोलने पड़ते हैं, संपो बहिष्कन भी करना पड़ता है। एक रनत्रयमूर्तिक प्रति इस तरहका व्यवहार करने पर भी प्राचार्य रंचमात्र भी मम्यग्दर्शनके दोष के भागी नहीं हुआ करते । क्यों कि उनका उद्देश्य उसका अपमान करनेका नहीं है उसका और सम्पूर्ण संघके हित का सम्पादन करनेका उनका वाभिया है !ी हवामासादिले. द्वारा किसी का हित सम्पादन करते समय के उसकी ब्राति कुल बल बुद्धि मादि को भी देखते हैं, अयोग्य मालुम होनेपर दीवा नहीं देखें। इस परसे कोई यह समझे या कहे कि उन्होंने उसका अपमान किया और इसी लिये अपने सम्य. ग्दर्शन को भी स्मय दोषसे मलिन बनालिया तो यह कथन या समझ भी ठीक नहीं है। क्योंकि दीक्षा न देनेका कारण अपमान करने का अभिप्राय नहीं किन्तु जिनशासन की पाबाका भंग न करनामात्र है।
राजा दीक्षित होकर अपने साथी साधुओं के प्रति किसी तरहका अपमानरूप व्यवहार न करके भी केवल अपने मन में ही अपने प्रति उत्कर्ष और उनके प्रति अपकर्षकी यह भावना रखता है कि मैं सबका स्वामी और ये सब मेरे नौकर थे और इसीलिये यदि उनके प्रति अवहेलनाका भावमात्र रखता है तो चाहे वह प्रत्यक्ष तिरस्कारादि न भी करता हो तो भी उसका सम्यग्दर्शन स्मय से दक्षित ही माना जायगा।
श्रेणिक महामण्डलेश्वर, इन्द्रद्वारा वर्णित उसके सम्यान्चके माहात्म्यकी परीक्षा केलिपे आये हए अत एव एक गर्भवती श्रापिकावेशी और दूसरे उसके लिये मछली पकड़नेवाले मुनिवेशी दोनो देवोंको नमस्कार कर घर ले जाकर बोला कि यदि इस वेशको धारण कर यह काम करोगे तो आपको दण्ड दिया जायगा । क्या इस तरह वेशी मुनि आर्यिका को ठिकाने लाने लिये डांटनेवाले श्रेणिकके दायिक सम्परत्व में सस्मयता मानी जायगी १ नहीं।
विष्णुकुमारने ऋद्धिसम्पम महामुनि होते हुए भी संघ और धर्मकी रचाके लिये थोड़ी देरको निमस्तरपर उतरकर पलिको न्यककृत करके क्या अपना सम्यक्त्व समल पनाया ? नहीं। चारिक वारसम्यमुपसे विभूषित ही कीया।
उबिला रानीकी न्यायोचित अधिकारप्राप्त रथयात्रामें अपमान करनेके ही भमिप्रायसे विम उपस्थित करनेवाली बुद्धदासी भऔर उसको अविवेकपूर्ण माज्ञा देने वाले महाराज पृतिक को तिरस्कृत और भयातुर बनाकर उर्षिलाके रथका भ्रमण करानेवाले बजकुमार का सम्यक्त्व मलिन न होकर प्रमावनाका पादर्श वनगया ।
इन उदाहरणोंसे मालुम हो सकता है कि कदाचित् किसी के प्रति कोई किया यदि अपमान