Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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२८६.
रत्नकरए श्रावकाचार प्रकरण मोक्षमार्ग का है। अतएव उसको दृष्टिमें रखकर अर्थ करने पर मतलब यह होता है कि सम्यक्त्वके बिना ज्ञान-चारित्रमें ये बातें घटित नहीं हो सस्ती । किन्तु सम्यग्दर्शनके हो जाने पर अथवा समीचीनताके आ जाने पर ज्ञान-चारित्रमें ये सभी अर्थ घटित हो सकते हैं और हो जाते हैं । क्योंकि ज्ञान चारित्रके समीचीन बन जाने पर जीचकी गतिनिवृत्ति हो जाती है उसका संसार मयोदिन हो जाता है उसकी अवस्था और परिस्थिति भी बदल जाती है। वह मोक्षमार्गमें स्थिर हो जाता है ।।
वृद्धि-इस शब्द के समृद्धि, अभ्युदय, सम्पचि और बढवारी आदि प्रसिद्ध अर्थ हैं । उपर्युक्त दोनों शब्दोंकी तरह यह शब्द भी बुध थातुसे४ जिसका कि अर्थ रहना होता है भाव अर्थमें तिन् प्रत्यय होकर बनता है। क्योंकि सम्यक्त्वके हो जाने पर ही सम्यग्दर्शनके होनेपर अथवा ज्ञानके सम्यग्ज्ञान और चारित्रके सम्यकचारित्र हो जाने पर ही रद्द जीव मोक्ष मागमें आगेको बढ़ता है । अन्यथा नहीं तथा उसके सभी गुण और ज्ञान चारित्ररूप अथवा रत्नत्रयरूप तीनों ही मुख्य गुणों को सम्पत्ति भी दिनपर दिन मोक्ष मार्गमें पागेको-परमनिःश्रेयस पदकी लब्धि तक बहती ही५ जाती हैं।
पलोदय-शब्दका अर्थ फलका प्रकट होना या प्राप्त होना है। किसी भी कार्यके अन्तिम परिणामको फल कहते हैं । ज्ञान चारित्रके समीचीन बने बिना मोधके मार्गवर्ती असाधारण ऐहिक पुण्य कर्मोदय जनित अभ्युदयरूप फल तथा अन्तिम रसानुभवके समान परमनिःश्रेयस पदके लाभका फल प्राप्त नहीं हो सकता।
न सन्ति असति सम्यक्त्वे-इन शब्दोंका अर्थ ऊपर किया जाचुका है और स्पष्ट है। फिर भी यह बात ध्यानमें रहनी चाहिये कि इस वाक्यका प्रयोग इसलिये किया गया है कि. जिससे साध्यके अभावस्थान विपक्षका बोध होसके और यह जाना जासके कि विपक्षमें यह बाथा आती है जिसके फलस्वरूप मोक्ष मार्गको सिद्ध करने के लिए ज्ञान चारित्रका अथवा तीनोंकाही समीचीन होना आवश्यक है। क्योंकि प्रशस्तवाको प्राप्त किये बिना इन तीनों गुणों में और मुख्यतया शान चारित्रमें मोक्ष रूप कार्यको निम्पन्न करने की या तद्प परिणत होनकी औपादानिक योग्यता नहीं आसकती।
चीजाभावे तरोरिव-यह दृष्टान्तरूप वाक्य है । इसके द्वारा यह अभिप्राय व्यक्त किया गया है कि जिस तरह अंकुरोल्पचिसे लेकर फल पाने तकको वृधकी चार अवस्थाएं बीजकी
१-देखो कारिका नं० ३५ तथा उमके पोषक समर्थक अन्य ग्रन्थ । २–सावधिं विदधासि (त्या) जयंजवीभावं नियमेन संपादयति चिरकालम् । य. ति० ३-देखो आगेकी कारिका नं० ३३ । ४-बादि आत्मनेपदी तथा तुदादि आत्मनेपदी ।
५-गुण स्थान क्रमसे अध्यात्मिक विशुद्धि बढती जाती है। ६-यह बात सप्त परम स्थानीय लाभको बताने वाली ही भागेकी कालिका नं०३६ से ४१ तकके प्रकरपाक अतिम फल वर्णनसे जानी जा सकती है।