Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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पन्द्रिका टीका बत्तीस श्लोक यद्यपि इस प्रश्नका उत्तर ऊपरके वर्णनसे ही हो जाता है फिर भी संक्षेपमें उसको कुछ अधिक स्पष्ट कर देना भी उचित और आवश्यक मालुम होता है।
यह कहा जा चुका है कि श्रात्माक हीना ही गुण स्वतन्त्र है फिर भी उनका स्वरूप साधन विषय फज्ञ भिन्न मिन्न ही हैं । सम्यग्दर्शनका विषय सामान्य है। इसका तात्पर्य यह है कि जिस तरह रोग और मास्थ्यका प्रभाव शरीरके किसी एक भागपर ही न पडकर सम्बन्धित समी भागों पर पड़ता है | उसी तरह प्रकृतभी समझना चाहिए । मिथ्यात्व और सम्यक्त्वका प्रमाव मात्माके किमी एक दो गुणों तक ही सीमित नहीं है किन्तु भात्माके जितने भी अनन्त गुहा उन सभीसे और उनकी जितनीभी पर्याय है तथा सम्पूर्ण गुणों और पर्यायोंका समूह रूस अखएट पिण्ड त्रैमालिक सवरूप प्रात्मद्रव्य है उन सभीसे सम्बन्धित है । मिथ्यात्वका अर्थ यह है कि विवक्षित मात्मा और उसके सभी गुण पाय मूर्षित हैं । सम्यक्त्वका अर्थ यह है कि समस्त श्रात्मा और उसके सभी गुणों पर्यायोंमेंसे यह मू भाव दूर हो गया है। सम्पावके हो भानेपर जब सभी गुण पर्यायोमे से मूर्खाभाव अथवा अस्वास्थ्य दूर कर चैतन्य एवं स्वरूपावस्थानके साथ साथ पूर्णताक शिप जोगती है तशान और चारित्रही उससे किस तरह वंचित रह सकते हैं । ये दोनों वो आत्माके अनन्त गुणों में सबसे अधिक महत रखते हैं। ज्ञान लक्षणरूप है, मार्गका प्रकाशक है, स्व भौर परका विवेचक तथा प्रयाजनीभूत बच एवं कर्तव्यका निश्चायक है सब चारित्रगुण रचाधीन स्थितिको सिद्ध करनेमें परम सहायक समस्त नीति और ध्यूह रचनामें दक्ष मोहराज या सम्पूर्ण कर्मीका विघटन करनेवाले तन्त्रका असाधारण अधिकारी है। फलतः ये भी मोहचाभरूप मूळ या भस्वास्थ्यके मूल कारणभूत विकारके निकल जानेसे प्रारमाफ अनुकूल हितके साधक प्रशस्त बन ही जाते या हो ही जाया करते हैं। क्योंकि सामान्य अंशकै शुद्धहो जाने पर विशेष अंश विकारी किस तरह रह सकता है। कहा भी है कि-"निर्विशेष हि सामान्यं, भवत् खरविषाएवत् । सामान्यरहितत्वाच्च विशेषस्तप्रहरी हि" ।। अस्तु,
इस सब कथनसे वह बात स्पष्ट हो जाती है कि ज्ञान वारित्रकी अपेक्षा सम्यग्दर्शनकी शुद्धिका विषय सामान्य होने से व्यापक है और इसीलिए उसकी प्रधानता है। यह लोक प्रसिद्ध कहावत भी है कि "सर्वे पदा हस्तिपदे निमग्नाः।"
किन्तु विशिष्ट अर्थ क्रियामें विशेष ही साधक बन सकते हैं। यही कारण है कि मोक्ष मार्गमें ज्ञान और चारित्रकी आवश्यकता स्वीकार की गई है । और इसीलिए इस कारिकाभी कहा गया है कि मारम्भमें सामान्यतया समीचीनताके भा जाने पर फिर यदि मोक्षमार्गरूप पावकी संभूति स्थिति वृद्धि और फलोदपके लिये कोई बीजस्थानीय हैं वो मान चारित्र ही । । क्योंकि प्रागमका रहस्य जाननेवालोंसे यह अपिदित न होगा कि उद्योतन उपव आदि निस्तरण
१-आप्तमीमांसा
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