Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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रनाराकागार स्याग होता है यहां तक जीवको गृहस्थ और जिनने इनका तथा इनसे सबन्धित या इनके मुख्य सहायक हिमादि तीन पापोंका भी साथमें सर्वथा त्याग कर दिया है वे अनगार हैं-मोचमार्गी मुनि है । जो इन पांचोंका एक देश परित्याग करते हैं वे देशसंयमी-संयमासंयमी अणुव्रती श्रावक रहे. जाते हैं। इस प्रकरणके प्रारम्भमें भी स्वयं अन्यकर्ताने संसारके दाखोंसे अथवा दुःखमय संसारसे छुड़ाकर उत्तम सुखमें रखने-उत्तम सुखरूप अवस्थामें परिणत कर देनेमें अमाधार कारण-उपायस्वरूप जिस रलत्रय धर्मको व्याख्यान करनेकी प्रतिज्ञा की है उसी रत्नत्रयकी मूर्ति की सपम्बी गुरुक स्वरूपका सम्यग्दर्शन के विषय--श्रद्धं यरूपमें वर्णन करते हुर प्रथम तीन विशेषणांके द्वारा इन्हीं पांच पापोंके राहित्यसे युक्त बताया है। उससे भी यही मालुम हो सकता है कि जो उपक्ति पांचों इन्द्रियों के विषय तथा प्रारम्भ और परिग्रहका मी सर्वथा त्याग कर देता है वही मोचमार्गमे गुरु है, प्रधान है, मुखिया है, नेता है, और मादर्श है।
किन्तु यहां पर इस कारिकाके द्वारा प्राचार्य बताना चाहते हैं कि केवल बाह्य पाप प्रवृत्ति गेंका परित्याग ही मोधमार्ग है यह धारणा अपूर्ण है-ऐकान्तिक है, अतएव सत्य नहीं है। क्योंकि यद्यपि यह सत्य है कि मोचमार्गको सिद्ध करनेके लिये इन पापोंका परित्याग करना अत्यावश्यक है.। बिना इनका सर्वथा त्याग किये मोक्षका मार्ग सिद्ध नहीं हो सकता। फिर भी इन पापोंका परित्याग करने वालोंके लक्ष्य में यह बात मी आनी और रहनी चाहिए कि इतने से ही मोक्षमार्ग सिद्ध नहीं हो सकता जब तक कि इन पापोंके मूलभूत महापापका परित्याय नहीं किया जाता. अथवा यह छूट नहीं जाता । तथा यह भी भालुम होना चाहिये कि इन सभी पापोंका वह मूलभूत पाप क्या है । संसारके सभी पापोंका जो उद्गम स्थान है, जो स्वयं महापाप है, जिसके कि छूटे गिना अन्य समस्त पापोंका परित्याग कर देना भी अन्तमें निरर्थकही सिद्ध होता है, तथा जिसके छूट जानेपर संसारका कोई भी पाप सर्वथा छूटे बिना नहीं रह सकता, जबतक उस पापका परिणाग नहीं होता तब तक उस धर्मकी भी सिद्धि नहीं हो सकती
और न मानी जासकती है जो कि मोक्षका मार्ग–असाधारण कारण या अव्यभिचरितनिश्चित उपाय माना गया है । जिसके कि वर्णन करनेकी यहां प्रतिज्ञा की गई है और जो कि श्रीवर्धमान भगवान्के तीर्थमें वस्तुतः अभीष्ट है। इस पापका ही नाम है मोह । और इसके अभावका ही नाम है सम्यग्दर्शन । जिसके कि बिना अन्य पापप्रवृत्तियोंका पूर्णतया परित्याग भी अपने प्रयोजन-परिनिर्वाणको सिद्धि में सफल नहीं हो सकता। इस तरहसे मोक्षमा अत्यन्त निकटवर्ती साधन सामान्य चारित्र नहीं अपितु सम्पचारित्र हैं। और चारित्र सम्यक्त्वक विना सम्यक चारित्र बनता नहीं अतएव मोक्षमार्गमें सफलता सम्यग्दर्शन पर ही निर्भर है। यह स्पष्ट कर देना ही इस कारिकाका प्रयोजन है।
शब्दोंका सामान्य विशेषार्थ--विषयाशावशातीतः, निरारम्भा, अपरिग्रहः । फारिका नं० १० ।